अचानक एक दिन
हुई उसके बचपन की हत्या
विवाह की वेदी ने दिया
एक नया घर-आँगन
एक नया रोल
एक नया अभिनय
एक नया डर...
अचानक एक दिन
ख़त्म हुई नादानियां
दफन हुईं लापरवाहियां
स्याह हुए स्वप्न
भोथरा गईं कल्पनाएँ....
अचानक एक दिन
उठाना पडा भारी-भरकम
संस्कारों का पिटारा
जिम्मेदारियों का बोझ
मानसिक-शारीरिक तब्दीलियाँ
और शिथिल हुए स्नायु-तंत्र...
दीखता नही दूर-दूर तक
इस मायाजाल से
निकलने का कोई द्वार
सूझता नही कोई समाधान
इसीलिए लिया उसने प्रण
अगली पीढी के साथ
ऐसा नही होने दूंगी....
और फिर खुल-खुल गईं
कई खिड़कियाँ,
संभावनाओं के कई द्वार......
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
बाल-विवाह के विरोध में आपकी यह कविता आवाज़ तो उठाती है लेकिन सार्थक प्रयास हुआ ऐसा नहीं कहूँगा.
भाई विजय मिश्रजी के कहे से मैं भी सहमत हूँ.
सादर
आदरणीय अनवर साहब बेहद उम्दा भाव, दर्द से शुरुआत की आपने और अंत जिस सकरात्मक सोच और सन्देश के साथ किया वाह दिल खुश हो गया. बहुत बहुत बधाई आपको इस सुन्दर रचना पर.
आपकी संवेदनशीलता इस रचना में दिखाई दे रही है बहुत बहुत बधाई आपको इस रचना के लिये
आदरणीय अनवर सर ..इस रचना की भावभूमि के लिए आपका हार्दिक आभार ....ओर आपकी संवेदनशील लेखन के लिए ढ़ेरों बधाईयाँ.....सादर
बहुत सुन्दर रचना....हार्दिक बधाई.सादर
दीखता नही दूर-दूर तक
इस मायाजाल से
निकलने का कोई द्वार
सूझता नही कोई समाधान
इसीलिए लिया उसने प्रण
अगली पीढी के साथ
ऐसा नही होने दूंगी....
और फिर खुल-खुल गईं
कई खिड़कियाँ,
संभावनाओं के कई द्वार......///// सकारात्मक सन्देश देती रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
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