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उसे भूल जा तू न याद कर, जो गुज़र गया वो गुज़र गया
जिसे तख़्ते दिल में बिठाया था,वो उतर गया तो उतर गया
यहाँ आंधियों का वो ज़ोर है ,कि उजड़ गया है मेरा चमन
मेरी चाहतें मिली ख़ाक में , मेरा ख़्वाब था जो बिखर गया
सुनो हाकिमों मुझे दो सजा , है गुनाह मुझको क़ुबूल सब
मेरा यार मेरा गवाह था , मुझे ग़म है वो ही मुकर गया
ये जो बारिशें हुई अश्क की , ये कहीं से बात भली भी है
तेरा ग़म पिघल के जो बह गया, तेरा अक़्स भी है निखर गया
तेरा हर सितम है अजीबतर , मेरा हौसला भी अज़ीमतर
मुझे उस तरफ से उजाड़ा जब, तो मै इस तरफ से सँवर गया
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
कमाल कमाल कमाल !!!!
आदरणीय गिरिराज सर बेहतरीन ग़ज़ल ....संग्रहणीय
आदरणीया कुंती जी , ग़ज़ल को आपका आशीर्वाद मिला , मन प्रसन्न हुआ ॥ उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय नादिर खान भाई , गज़ल को आपका अनुमोदन मिला , बहुत खुशी हुई , सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीया कल्पना जी , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभार ॥
सुनो हाकिमों मुझे दो सजा , है गुनाह मुझको क़ुबूल सब
मेरा यार मेरा गवाह था , मुझे ग़म है वो ही मुकर गया......बहुत खूब भंडारी जी...दिन पर दिन आपकी लेखनी में और निखार आ रही है. सादर.
तेरा हर सितम है अजीबतर , मेरा हौसला भी अज़ीमतर
तू ने उस तरफ से उजाड़ा जब, तो मै इस तरफ से सँवर गया
आदरणीय गिरिराज जी बहुत खूब ...
बहुत शानदार गजल है, आदरणीय! बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय अजय भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥
आदरणीय शिज्जू भाई , आपने सही कहा भाई , मेहनत तो बहुत हुई है ॥ आदरणीय , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया ॥
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है... बधाई
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