ग़ज़ल : - बनारस के घाट पर
कुछ था ज़रूर खास बनारस के घाट पर ,
धुंधला दिखा लिबास बनारस के घाट पर |
घर था हज़ार कोस मगर फ़िक्र साथ थी ,
मन हो गया उदास बनारस के घाट पर |
संज्ञा क्रिया की संधि में विचलित हुआ ये मन
गढ़ने लगा समास बनारस के घाट पर |
दुनिया के रंग देख कर हर रोज ही कबीर ,
करता है अट्टहास बनारस के घाट पर |
बदरंग हुआ जल तमाम मछलियाँ मरीं ,
किसका हुआ निवास बनारस के घाट पर |
फिर आओ भगीरथ नयी सी गंगा बुलाओ ,
गाता है रविदास बनारस के घाट पर |
जमने लगी है आरती उत्सव भी हो रहे ,
फिर से जगी है आस बनारस के घाट पर |
काशी को बम का खौफ अमाँ भूल जाईये ,
मत बोइये खटास बनारस के घाट पर |
दीना की चाट खूब तो अख्तर की मलइयो ,
रिश्तों में है मिठास बनारस के घाट पर |
Comment
आपको शायद पहली बार पढ़ रहा हूँ। खूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई, विशेषकर एक अभिनव रदीफ़ के लिये।
संज्ञा क्रिया की संधि में विचलित हुआ ये मन
गढ़ने लगा समास बनारस के घाट पर |
लाजवाब...लाजवाब...लाजवाब ....
बदरंग हुआ जल तमाम मछलियाँ मरीं ,
किसका हुआ निवास बनारस के घाट पर |
मन दुखी और आक्रोशित कर देता है यह....
पर आस बंधाते हुए आपने डूबते मन को सहारा दे दिया...
जमने लगी है आरती उत्सव भी हो रहे ,
फिर से जगी है आस बनारस के घाट पर |
अद्वितीय रचना पढवाई आपने...
मन हरा हो गया....
आभार..
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