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शब्दों में पत्थरों को भर मारने की आदत
यूँ बेवजह तुम्हे ठोकर मारने की आदत
हमने मुहब्बतों में झेले सितम हज़ारों
दीवार पे हमें है सर मारने की आदत
ईमानो हक की बातें हैं करते आज वे ही
जिनको है भीड़ में छुप कर मारने की आदत
हालात दर्द को पैहम यूँ बढ़ाये उसपे
ऐ हुक्मराँ तेरी नश्तर मारने की आदत
उड़ना जिन्हे है वो उड़ ही जाते हैं परिन्दे
उनको नही ज़मीं पे पर मारने की आदत
(मौलिक तथा अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय नीरज जी आपका आभार
भाई तपनजी आपका शुक्रिया
आदरणीया मीनाजी आपका आभार
आदरणीया सरिता जी आपका आभार
आदरणीय श्याम नारायण सर आपका आभार
आदरणीय लक्ष्मण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गिरिराज सर आपका आभार
एक उम्दा कहन के साथ ग़ज़ल कही है आपने जनाब शिज्जु शकूर साहिब !...बहुत बढ़िया ! जोरदार आगाज़ हुआ है ..
हर बात पे है क्यूँ पत्थर मारने की आदत
यूँ बेवजह तुम्हे ठोकर मारने की आदत....वाह जी वाह !
ग़ज़ल में कहन की परवाज़ तो ऊंची है भाई मगर लगभग हर शेर में शिकस्ते नारवा के कारण गंभीर अटकाव हो रहा है .. आप एक बार देख लें .. इस ग़ज़ल में तो शायद सुधार संभव न हो सके .. आगे ध्यान रखें
बहुत खूबसूरत गजल .. बधाई ..
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