हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता है
“किन्तु परंतु के भँवर में घुमंतू समाज”
‘’वसुधैव कुटुंबकम’’ मूलमंत्र की प्राप्ति की पहली सीढ़ी शिक्षा ही है जिसको हासिल कर कोई भी देश अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। हमने अपने महापुरुषों के बलिदान से आज़ादी का सपना पूरा कर लिया, उस आज़ादी का सूरज निकले अरसा बीत चुका, ढंग से जीने का मौका अधिकार भी मिला, दुनिया के साथ अपना देश भी तरक्की और प्रगति की दौड़ लगा रहा है। देश में जहां विकास की तमाम योजनाएँ संचालित हो रही हें वही एक समाज ऐसा भी है जिनकी आँखें दर्द और पीड़ा की दास्ताँ हर पल कुछ कहती है, जिनको न तो ढंग से जीने का अधिकार ही मिला और न ही इनकी कला को सम्मान।
एक समय ऐसा भी था जब हुनरबंद पलायन करने वाले को उनकी श्रेष्ठ कलाओं, तकनीक के कारण सम्मान दिया जाता था। सुंदर गहरे रंगो के परिधानों में सजे ‘गाड़िया लुहार’ (घुमंतू), बंजारा जाति के ये लोग सड़क के किनारे आज भी हमे दिखाई देते हें, पर उनकी कला के प्रति सम्मान और बेहतर ज़िंदगी के प्रयास नदारद है। आज तक देश और प्रदेश में से किसी भी सरकार ने इस जातियों के उत्थान के लिए नहीं सोचा है जबकि छठी सदी के संस्कृत के महाकवि दंडी ने अपनी रचना ‘दशकुमार चरित्र’ में भी इस जाति का उल्लेख किया है। शहरी भारत को एक तिहाई आबादी भारत में बेघरवार इधर-उधर भटक रही है, इनकी न तो कोई नागरिकता होती है, न ही कोई पहचान, देश नागरिक के होने के बावजूद ये घुमंतू, बंजारा जाति के ये लोग न ही देश के नागरिक हें और न ही उन्हें नागरिक जैसे अधिकार प्राप्त हें। एक समाज के साथ इससे बड़ी नाइंसाफी क्या होगी, सरकार ने भी इनको अपने नसीब के साथ मरने के लिए छोड़ रखा है। तरक्की के इस मोड पर भी, पुलिस, प्रशासन और समाज इनको अपराधियों की नजर से देखता है। बुलंदी पर पहुँचने के लिए जितनी ऊंचाई से हमने छलांग लगाई उतनी तेजी से हमारी संवेदनाओं ने दम भी तोड़ा है।
उपर खुला आसमान है, और नीचे धरती, इस दुनिया में इनके ये ही दो अपने हें। ये वो उपेक्षित और वंचित समाज है, जिनके अधिकारों की आवाज़ कोई नहीं उठाता है, सड़क किनारे की जगह जहां आमतौर पर कचरे के अंबार देखने को मिलते हें उस जगह पर अपनी ज़िंदगी जीने को विवश हें। सड़क पर विकसित भारत की वीभत्स तस्वीर देख अदम ‘गौंडवी’ का यह शेर की ‘’सरापा गुल मुहर है ज़िंदगी, हम गरीबों की नजर में एक कहर है ज़िंदगी’’।
इस उपेक्षित समाज की व्यथा को तकदीर समझा जाए या उदासीनता .... अमीर हो या गरीब ख्वाब सबकी पलकों में सजते हे, बड़ी-बड़ी कल्पनाओं की तस्वीर भी गढ़ते होंगे, लेकिन दूसरे ही पल वो ख्वाब और तस्वीर बदरंग हो जाते होंगे, जब अपनी बदनसीबी को सड़क के किनारे रखे चूल्हे को देखते होंगे, जो न जाने कब किसकी बुरी नजर का शिकार हो जाए, और एक एक रोटी के लिए तरस जाए। कौन नहीं चाहता कि उसके पास मकान के नाम पर छत हो, जिसमें उसकी बूढ़ी माँ और बच्चे सकून से रह सके, कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे स्कूल जाएँ, कौन नहीं चाहता कि जब वो काम से वापिस आयें तो उसका परिवार स्वागत करे। लेकिन मजबूरियां उसकी सोच और सपने को चकनाचूर कर घायल कर देती है। क्यों इतनी संवेदनहीन होती जा रही है सरकार और हम सब। इस समाज की बस एक ही पुकार कब निकलेगा हमारी आज़ादी का सूरज, घुमंतू समाज की बदहाल ज़िंदगी की सुधि लेने वाला कोई नहीं है। सैकड़ों सदस्यों के समुदाय की हर झोपड़ी में निराशा का अँधियारा है। बेरोजगार नौजवान की फ़ौज है, बीमार बच्चे देश की सेहत पर सवाल खड़ा करते हें। अपने ही हक़ की जमीन मयस्सर नहीं है। ढेर सारे सवालों के कटघरे में खड़ी इनकी ज़िंदगी पर सरकार के नुमाइंदों की नजर इनकी तरफ नहीं उठ रही है। आज स्थिति यह है कि इन घुमंतू जातियों को अब तक देश में मूल निवास प्रमाण पत्र और राशन कार्ड जैसे मूलभूत दस्तावेज़ तक नहीं प्राप्त है। सवा सौ करोड़ कि आबादी वाले देश में इनकी संख्या कितनी है, इनका जबाव सरकारी आंकड़ों में उपलब्ध होना भी मुश्किल होगा। ठीक इसके विपरीत छठी सदी के दौर में घुमंतू जातियों का समाज में एक प्रमुख स्थान था, कला और तकनीक के क्षेत्र में उस समय के शासकों द्वारा सम्मानित किया जाता था। और आज विडम्बना यह है कि इस समाज के लोग अपने ही देश और संस्कृति से कटकर सड़क किनारे रहने को मज़बूर हें।
उम्मीदों का पसीना बहाते हुये हर रोज इस आशा से जागते हें कि आज का सूरज उनकी ज़िंदगी को रोशन करेगा। सरकार की तरफ से पहल होनी चाहिए कि उनके समाज की आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का आंकलन किया जाय और विकास की योजनाएँ बनाई जाय जिससे इस वर्ग को भी समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का समुचित अवसर मिल सके। यही कहना ठीक रहेगा कि शिक्षा ही वह चिराग है जिनसे इनकी जिंदगियाँ रोशन हो सकती हें, एक बेहतर ज़िंदगी जी सकते हें, लोकतन्त्र कि सोच में शामिल हो सकते हें। शिक्षा की पाठशाला ही इनको उन्नति के द्वार तक ले जा सकती है क्यूंकि साक्षर बच्चे ही खुशहाली और बुलंदियों की सीढ़ियाँ चढ़ते हें। और देश की आने वाली पीढ़ियाँ इतिहास रचती हें। साथ ही घुमंतू समाज अपना खोया हुआ गौरव पुनः हासिल कर सकता, देश के विकास में अपना महत्तपूर्ण योगदान दे सकेगा। गणतंत्र देश का सपना साकार होगा। एक कराहता समाज खोया हुआ आत्मसम्मान प्राप्त कर सकेगा।
डॉ ह्रदेश चौधरी
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
खानाबदोशों की परिस्थितियों पर कई वन्दु ढंग से साझा हुए हैं. वैसे देखा जाय तो, समस्या सबकी दृष्टि में आ जाती है. आवश्यक है उपाय का सामने आना. कैसे इन घुमंतुओं को सुचीबद्ध किया जाय. कारण कि सरकार के द्वारा नागरिकों का डाटा जिन मानकों पर तैयार किया जाता है उनका लिहाज इन घुमंतुओं को श्रेणीबद्ध या सूचीबद्ध करने में आड़े आता है.
एक संवेदनशील मुद्दे को उठाने की सार्थक कोशिश हुई है.
सादर
आदरणीया आपने समाज के एक ऐसे पहलू को उजागर किया जिसके बारे शायद कम लोग ही सोचते हैं सरकार की नज़र में शायद ऐसे लोगों का कोई अस्तित्व नहीं यही कारण है कि इन्हें किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं मिलता. विचारणीय लेख हेतु बहुत बहुत बधाई आपको.
आपने सही कहा हृदेश जी. आज तमाम गणतंत्र की कितनी भी झांकियां क्यों न निकल जाये पर उसमे दबी कराह किसी को भी सुनाई नही देती । अच्छे सामयिक विचारों के लिये बधाई ।
आदरणीया हृदेश जी , सुन्दर आलेख के लिये आपको बधाई ॥
बहुत ही बढ़िया , सुंदर और सार्थक आलेख , वास्तव मे विचारणीय । आपको बहुत बधाई आ0 हृदेश जी ।
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति , बधाई आप को | सादर
आ० श्याम जी बहुत बहुत धन्यवाद...
आपकी इस वैचारिक प्रस्तुति के लिए सादर धन्यवाद......
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