दुनिया में जितना पानी है
उसमें
आदमी के पसीने का योगदान है
गंध भी होती है पसीने में
हाथ की लकीरों की तरह
हर व्यक्ति अलग होता है गंध में
फिर भी उस गंध में
एक अंश समान होता है
जिसे सूँघकर
आदमी को पहचान लेता है
जानवर
धीरे-धीरे कम हो रही है
यह गंध
कम हो रहा है पसीना
और धरती पर पानी भी
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय निकोर साहब आपका हार्दिक आभार!
आदरणीया मंजरी जी आपका हार्दिक आभार!
सच! वर्तमान में इन्सान, कर्तव्य के बिना ही अधिकार पाना चाहता है परिश्रम और पसीने का मोल उसे नही पता
बहुत गहन व् मन को छू जाने वाली रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी
बिना श्रम के तो पानी भी नसीब नहीं ...पसीना और पानी को केन्द्रित कर बहुत गहन मर्म को लेकर रची रचना के लिए ढेरों बधाई ...बहुत सुन्दर बात कही है
इस अच्छी रचना के लिए बधाई।
आदमीयत की बात अच्छे तरीके से की है आदरणीय बृजेश जी । बधाई स्वीकारें ।
आदरणीय श्याम नारायण जी, लक्ष्मण धामी जी, गिरिराज जी, नीरज कुमार जी, आदरणीया मीना जी, अन्नपूर्णा जी, वंदना जी आप सभी का हार्दिक आभार! रचना को आपका अनुमोदन मेरा उत्साहवर्धन कर रहा है!
सादर!
गंध...सुन्दर चित्रण किया है आदरणीय।
टैगोर जी
ने व्यक्ति विशेष की विशेष गंध की याद से गहन आत्मीयता को दर्शाया है।
कम शब्दों में गहन प्रस्तुति करने के लिए बधाई।
सादर
धीरे धीरे कम हो रहा है पसीना और धरती पर पानी भी , बहुत खूब .. जब पसीना बहाने वाले लोग नहीं रहेंगे , धरा भी नहीं रहेगी .. बहुत बधाई , सुन्दर रचना के लिए ..
आदरणीय बृजेश भाई , सच मे इंसानो मे इंसानियत अब खत्म होते जा रही है । सुन्दर रचना के लिये बधाइयाँ ॥
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