पीपल की छाँव में खीर खाये एक अरसा हो गया है
मन फिर से चंचल है
तुम आओगी न, सुजाता !
उसके होने न होने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ना था,
ऐसा तो नहीं कहता
लेकिन क्या वो
कोई आम, अशोक, महुआ या जामुन नहीं हो सकता था
या फिर,
वहीं उगा कोई पुराना छायादार ?
किन्तु, आज तक परित्यक्त !
हम मिथक तो
फिर भी गढ़ लेते !
उस पीपल में कुछ तो होगा
कि, गुजारी रात !
जब कि मैं पिशाच नहीं हूँ
न ब्रह्मराक्षस
मैं ब्राह्मण भी नहीं
किन्तु, अब
एक मुझे ही नहीं
एक पूरे समाज को चाहिये तुम्हारी पकायी खीर
चाहना व्यक्तिगत भले हो
उसकी उपलब्धियाँ सदा से सामाजिक होती हैं / यह सत्य है
पर अब
एक पूरा समाज नहीं सो पा रहा है, मेरी तरह
एक पूरे समाज की जिज्ञासा बलवती हो रही है अब
पूर्णत्व की चाह शारीरिक ही नहीं होती
यह वैचारिक पहलू वस्तुतः अनिवार्यता है
हर जीवित संज्ञा की
लेकिन, इसी के साथ पेट भी तो एक भौतिक सत्य है
जिसकी दासता की अपरिहार्य उपज
इस समाज के चार वर्ण..
आज तक !
मन फिर चंचल है
तुम आओगी न सुजाता !
*****
-सौरभ
*****
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ जी,
कविता में इतनी सांद्रित वैचारिक प्रस्तुति कम ही देखने को मिलती है! इस कविता को कई बार पढ़ा, हर बार नए आयामों के साथ सामने आई. इसे बार-बार पढ़ने की इच्छा है, इसीलिए इसे संग्रह का अंग बना लिया है.
वर्ण-व्यवस्था और उसके दंश सहते समाज की मनोवृत्तियों तथा वर्तमन काल में उसके विकृत अवशेषों से उपजी कुंठाओं ने जिस बेबाकी से शब्द पाए हैं, वह आपकी कलम का ही कमाल हो सकता है.
भाव, कथ्य, शिल्प हर स्तर पर यह एक पूर्ण रचना है! कविता को जिस सतही नज़रिए से लोग नापते-तौलते हैं और जिस उड़न-छू तरीके से इस विधा का लोग प्रयोग करते हैं उनके लिए यह रचना एक सबक है!
यह रचना साहित्य में एक मील का पत्थर साबित होगी!
आपका साधुवाद!
सादर!
किन्तु ,अब
एक मुझे ही नहीं
एक पूरे समाज को चाहिये तुम्हारी पकायी खीर
चाहना व्यक्तिगत भले हो
उसकी उपलब्धियाँ सदा से सामाजिक होती हैं / यह सत्य है" -
बहुत सुंदर मन को छू जाते भाव , बधाई स्वीकारें आदरणीय सौरभ जी
" तुम आओगी न सुजाता ----
किन्तु, अब,एक मुझे ही नहीं
एक पूरे समाज को चाहिये तुम्हारी पकायी खीर
चाहना व्यक्तिगत भले हो
उसकी उपलब्धियाँ सदा से सामाजिक होती हैं / यह सत्य है" -- वाह ! जिस दिन जिस किसी के मन में यह भावना आयेगी और कामना करेगा, सुजाता की खीर की उसकी ख्वाईश पूरी हो जायेगी | धनात्मक सोच देती सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारे
//तुम आओगी न, सुजाता !//
सुजाता आएगी .... जो भी अपने मन को धो लेगा, उस हर किसी के मन में आएगी। परन्तु सच में "मन को धोना" कितना कठिन है।
इस अति दार्शनिक रचना के लिए साधुवाद।
किन्तु, अब
एक मुझे ही नहीं
एक पूरे समाज को चाहिये तुम्हारी पकायी खीर
चाहना व्यक्तिगत भले हो
उसकी उपलब्धियाँ सदा से सामाजिक होती हैं / यह सत्य है
***
पूर्णत्व की चाह शारीरिक ही नहीं होती
यह वैचारिक पहलू वस्तुतः अनिवार्यता है
हर जीवित संज्ञा की
लेकिन, इसी के साथ पेट भी तो एक भौतिक सत्य है
जिसकी दासता की अपरिहार्य उपज
इस समाज के चार वर्ण..
आज तक !
नि:शब्द हूँ आदरणीय सौरभ सर पता नहीं क्यूँ आँख भर आई
सर जी..... टिप्पणी क्या दूँ आप की रचना पर बस नमन करूँगी आप को और अप की लेखनी को | सादर
आदरणीय सौरभ जी, आपकी रचना पढ़कर मैं छठी शताब्दी ई.पू. मैं सुजाता से मिलने चली गयी थी. मिली. आज भी वह हाथ में खीर का कटोरा लिये नतमस्तक खड़ी है. पीपल का पेड़ तो है मगर गौतम कहाँ.......?
आदरणीय सौरभ सर ..अत्यंत गंभीर रचना .रचना को कई बार पढना पड़ा तब जाके समझ सका ..सिद्दार्थ को खीर खाकर कुछ मिला और वो बुद्ध हो गए ..मुझे आपकी रचनाओं को पढ़कर यह मालूम पड़ता है की साहित्याकाश की तरफ जाती जिस सीडी पर हम खर्डे हैं वो अभी जमीन के ही इर्द गिर्द है ....हम भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं ..ओपन बुक्स ओं लाइन के इस प्रयास को मैं शस्वत नमन करता हूँ ..जिसमे आप सभी बिद्वत जनो के मार्गदर्शन में उस सीडी के अगले पायदान की तरफ हम सब अग्रसर है ..आपकी इस गहन , रचना पर आपको तहे दिल बधाई देते हुए ..सादर
द्वंद्व के द्वैत के साथ अद्वैत सदा से रहा है. यह कोई नयी अवधारणा नहीं थी तथागत के जीवन काल की भी. ’स्वयं समझ लेने’ की वैचारिकता तब भी महत्त्वपूर्ण थी जब कर्मकाण्ड हावी था. भृगुवल्ली में इसे बेहतर समझा जा सकता है, जहाँ व्यक्तित्व के सर्वोच्च विन्दु पर पुत्र ही पिता का गुरु हो जाता है. यह अद्वैत की पराकाष्ठा है.
जो इस अन्वेषण की राह पर जहाँ तक पहुँचा, वही उसकी समझ की पूँजी रही. संवेदित समाज लाभान्वित हुआ.
कर्मकाण्ड मात्र विधान है. साधन का परिचालन है. स्वयं में कोई साध्य नहीं. किन्तु, बिना साधन के साधना न उचित है न संभव. भले साधन वैचारिक ही क्यों न हों.
इन्हीं साधनों और साधनाओं के अर्थ ढूँढती हुई यह कविता उन साधनों को बिम्बों की तरह जीती है और साझा करती है.
आप सबों का अनुमोदन सबल कर गया.
सादर
आदरणीय सौरभ जी इस गूढ़तम रचना हेतु बहुत बधाई आपको ।
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