बिस्तर-करवट-नींद तक
रिस आया बाज़ार
हर कश से छल्ले लिए
बातें हुई बवण्डरी
मुदी-मुदी सी आँख में
उम्मीदें कैलेण्डरी
गलबहियों के ढंग पर
करता कौन विचार..
रजनीगंधा सूँघता
लती हुआ मन रेह का
फेनिल-कॉफ़ी घूँट पर
बाँध तोड़ता देह का
अधलेटे म्यूराल* पर
बाँच रहा अख़बार
खिड़की के बाहर हवा
इतनी कब निर्लिप्त थी
गुलमोहर के गाल पर
होठ धरे संतृप्त थी
उसके दिये रुमाल पर
आँकी थी तब प्यार..
******
-सौरभ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
******
*म्यूराल - दीवार पर उगी हुई मूर्तियाँ, भित्तिचित्र
Comment
आ० सौरभ जी
आपका यह गीत बहुत ही सुन्दर है और निस्संदेह नव गीत में अपना विशिष्ट स्थान बनाएगा बल्कि बना चुका है i यह शिल्प ही तो है जो गीत और नवगीत में विभाजन करता है i स्तुत्य् रचना i सादर i
इस प्रस्तुति पर अपनी सार्थक प्रतिक्रिया देने केलिए समस्त सुधी पाठकों और आत्मीयजनों को मेरा हार्दिक धन्यवाद
//सिर्फ लती हुआ मन रेह का .. बात मुझे स्पष्ट नहीं हुई ..//
जिसके पास रजनीगंधा जैसा पुष्प उपलब्ध हो वह रेह या ऊसर का लती यानि आदती होने लगे.. यानि रजनीगंधा जैसे नम और अत्यंत सुवासित पुष्प-गुच्छ को सूँघने और उसका आनन्द लेने वाला कोई शख़्स यदि रेह या ऊसर का जहाँ कुछ नहीं उगता, ऐसे वातावरण का लती होने लगे.. या हो जाय.. तो क्या वो कम अतार्किक बात होगी ?
इसी को रेखांकित करने की एक कोशिश हुई है.
//'हवा'स्त्रीलिंग संज्ञा तो है लेकिन फिर भी मुझे लगता है "आँका था" ही ज्यादा सही होगा.//
ऐसा ? कर्ता के साथ ने कारक हो तो क्रिया कर्म के अनुसार चलती है. अन्यथा नहीं. इतना मैं जानता हूँ. .. :-)))
हम शब्दों को साँचे में जमाने की प्रक्रिया को या भाव-प्रधान उद्वेलनों को ही कविता नहीं कहेंगे. उम्मीद थी, इस प्रस्तुति पर सार्थक चर्चा होती.
बहरहाल, इस नवगीत की अवधारणा तथा इसके वैचारिक पहलू को अनुमोदित करने के लिए सभी सुधीजनों के प्रति आभार..
शुभ-शुभ
आदरणीय योगराजभाईजी, आपका अनुमोदन मिलना ही किसी प्रस्तुति के सार्थक होने की पहचान है..
सादर धन्यवाद, आदरणीय.
बाज़ार के बिस्तर तक पहुँच जाने का ख्याल वास्तव में बेहद नवीन और विलक्षण हुआ है. कैलेन्डरी उम्मीदों को भी क्या सुन्दर शब्दों में बाँधा है. आपके इस नवगीत की गम्भीर सुगंध नथुनो से मस्तिष्क तक पहुंची है, हार्दिक बधाई निवेदित है.
आदरणीय सौरभ जी
बहुत ही अभिनव बिम्ब लिए हैं आपने इस नवगीत में...
हर कश से छल्ले लिए
बातें हुई बवण्डरी ...................वाह वाह! ऊहापोह का क्या खूब चित्रण हुआ है
लती हुआ मन रेह का............ सीधी सीधी राह चलने वाले का डगमगा जाना.....बहुत खूबसूरती से व्यक्त हुआ है
बस एक जगह अटक रही हूँ
आपने अंतिम पंक्ति में "आँकी थी ...." क्यों लिखा है? 'हवा'स्त्रीलिंग संज्ञा तो है लेकिन फिर भी मुझे लगता है "आँका था" ही ज्यादा सही होगा............................कुछ गलती हुई हो तो क्षमा कीजियेगा
आपकी प्रस्तुतियों के शिल्प को गौर करना भी बहुत कुछ सीखने के अवसर देता है.. 13-11 और 13-13 के शिल्प पर बहुत सुन्दर साधा है आपने अपने कथ्य को.
इस सुन्दर नवगीत पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय
आदरणीय सौरभ भाईजी ,
नवगीत की बधाई। बाज़ार और विज्ञापन के युग में हर कोई बाज़ारू होता जा रहा है, हालात तो अभी और बिगड़ना है । आखिर कौन सोचेगा ? जब ..................
हर व्यक्ति यहाँ पे बिकाऊ है, हर रोज यहाँ बाज़ार।
युवा, प्रौढ़, बूढ़े सब मस्त हैं, कौन करेगा विचार ॥...................
................. सादर
वाह हृदयस्पर्शी मनमोहक नवगीत रचा है आपने आदरणीय सौरभ सर शब्द चुनाव, पंक्तियों की गहराई प्रवाह बरबस आकर्षित कर रहा है. एक एक पंक्ति चिंतन पर विवश कर रही है. हृदयतल से ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.
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