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गज़ल (धूप पर बादलो का पहरा लगा हुआ है)

धूप पर बादलो का पहरा लगा हुआ है

उदासी का सबब और भी गहरा हुआ है

 

तूफ़ा से कह दो थोडा संभल कर चले

वक्त आज यहाँ कुछ बदला हुआ है

 

दुनिया का कैसा ये बाजार सजा है

जहाँ देखो हर रिश्ता बिका हुआ है

 

रात भर लिखती रही दर्द की दास्ता

रात का साया और भी गहरा हुआ है

 

देश की हालात मत पूछो तो अच्छा है

यहाँ हर इंसान इंसान से डरा हुआ है

 

देख कर खुशनुमा ये मंज़र हैरान हूँ मैं

एक फूल से सारा चमन महका हुआ है

        *****************

           महेश्वरी कनेरी  

       मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by rajesh kumari on January 28, 2014 at 5:06pm

वाह आ महेश्वरी जी ग़ज़ल पर आपको प्रयास करते देख सुखद अनुभूति हो रही है आपके अशआरों के सुन्दर भाव काबिले तारीफ हैं इनको बह्र ,मात्राओं में बांधेंगी तो शानदार ग़ज़ल बनेगी ,आपने रदीफ़ और काफिया का निर्वहन बखूबी किया है मतले में --धूप पर बादलो का पहरा लगा हुआ है--इसमें मात्राओं को गिनकर उसी तरह अन्य पंक्तियों की मात्राएँ साध लें.बहरहाल दिली बधाई लीजिये इस प्रथम प्रयास पर 

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on January 28, 2014 at 3:33pm

niceeeeeeeeeeeee

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