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बल भी उसके सामने निर्बल रहा है।
घोर आँधी में जो दीपक जल रहा है।
डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,
नीड़ का निर्माण, फिर फिर टल रहा है।
हाथ फैलाकर खड़ा दानी कुआँ वो,
शेष बूँदें अब न जिसमें जल रहा है।
सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जब से,
दिन हथेली पर दिया ले चल रहा है।
क्यों तुला मानव उसी को नष्ट करने,
जो हरा भू का सदा आँचल रहा है।
मन को जिसने आज तक शीतल रखा था,
सब्र का घन धीरे-धीरे गल रहा है।
ख्वाब है जनतन्त्र का अब तक अधूरा,
आदि से जो इन दृगों में पल रहा है।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी, आपकी टिप्पणी से एक नई ऊर्जा तो मिलती ही है, और मन बेहतर लेखन के लिए भी प्रेरित होता है। आपका हृदय से आभार।
आदरणिनीय रमेश जी, हार्दिक आभार आपका
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, बहुत बहुत धन्यवाद
आपकी कई ग़ज़लें पहले भी चकित करती रही हैं, आदरणीया कल्पनाजी. इस ग़ज़ल से भी मन प्रसन्न है.
यह अवश्य है, आदरणीया, जो अच्छा कहता-लिखता है उसीसे बेहतर और अच्छे की अपेक्षा भी होती है
सादर शुभकामनाएँ.
बेहतरीन गजल कही है आदरणीया आपने मन गदगद हो गया । बहुत बहुत बधाई
आ0 कल्पना दी बहुत सुंदर गजल हुई है बधाई आपको ।
आदरणीय नीरज जी, गजल की प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद।
डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,//इसका भावार्थ यह है कि सुरक्षित डाल ढूंढते-ढूंढते पखेरू हार चुका है जो नीड़ बनाना चाहता है।
आदरणीय मित्रों अनिल जी, केवल प्रसाद जी, जितेंद्र जी, गिरिराज जी,आदरणीया राजेश कुमारी जी, मोहिनी जी, कुंती जी, मीना जी, सरिता जी, आप सबकी अपनत्व से भरी प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणियों के लिए हार्दिक आभार। सादर
वाह वाह वाह बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आ.कल्पना जी दिली दाद स्वीकारें
लाजवाब गजल...वाह! बहुत खूब! हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
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