ऐ आसमान
इन सर्द रातों के
घने कोहरे में
तेरा दीदार नही होता
तेरी गर्म छुअन महसूस होती है
मुझे पता है, तू भी तपड़ता है
तरसता है, व्याकुल है मेरे शुष्क अधरों
को नमी देकर
खुद नमी पाने को
अपने शुष्क अधरों के लिए
गुनगुनी सी धूप में
मैं जल रही हूँ
ठंडी सर-सराती हवाएं
मेरे प्यार के दामन को चीर देती हैं
इतने बड़े दिन की, न जाने कब होगी ?
शीतल शाम
तू आएगा न मेरे पास
तारों भरा गहना लेकर
अपने मिलन की रात को
मैं तड़प रही हूँ...
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु, आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सुरेन्द्र जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
प्रिय जितेन्द्र भाई आनन्द दायी। क्या कल्पना है श्रृंगार संयोग विरह मिलन की आस
सुन्दर रचना
भ्रमर ५
आपका ह्रदय की गहराइयों से आभार आदरणीय सौरभ जी, आपकी प्रतिक्रिया शिरोधार्य है स्नेह व् मार्गदर्शन बनाये रखियेगा
सादर!
रचना पर आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया, बहुत ख़ुशी देती है आदरणीय विजय जी
//गुनगुनी सी धूप में
मैं जल रही हूँ// ...............प्रिय के विरह से सर्दी के मौसम में गुनगुनी सी धूप भी अच्छी नही लगती
आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय रमेश जी, स्नेह बनाये रखियेगा
सादर!
आपके रचनाकर्म पर कहूँ तो आपके लेखकीय आत्मविश्वास से न केवल मेरा मन मुग्ध है बल्कि आपकी इस प्रस्तुति से मैं एक पाठक के तौर पर दंग भी हूँ, भाई जितेन्द्रजी.
तमाम सुझाव और सलाहें फिर कभी.. .. अभी तो बस बधाई-बधाई-बधाई.. !
हृदय की गहराइयों से शुभेच्छाएँ
आदरणीय जितेन्द्र जी, इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई। भाव बहुत अच्छे हैं।
//गुनगुनी सी धूप में
मैं जल रही हूँ// .... इस पर कुछ प्रकाश डाल सकें तो आभार होगा।
आदरणीय जितेन्द्रजी मर्मस्पर्शी रचना प्रस्तुत किया है आपने बहुत बहुत बधाई
रचना की सराहना व् उत्साहवर्धन के लिए आपका आभारी हूँ आदरणीया अन्नपूर्णा जी, स्नेह व् आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
आपकी उत्साहबर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश जी, स्नेह व् आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर!
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