'लो'
फिर आ गया बसन्त,
प्रेम का उन्माद लिए,
प्रियतम की याद लिए,
'बसन्त' तो मेरे
मन का भी था,
रह गया उम्र के
उसी मोड़ पर,
लौटा ही नहीं,
जिंदगी उस
फफोले की मानिंद है,
जो रिसता है
आहिस्ता आहिस्ता,
बेइंतहां दर्द के साथ,
परन्तु सूखता नहीं,
नहीं खिलता
मेरे चेहरे पर,
सरसों के फूल का
पीला रंग,
पलाश के फूल
हर बार की तरह
इस बार भी
मुझे रिझाने में
नाकामयाब रहे,
तुम्हारी यादों के
चंद आँसूं,
पलकों पर सजा
'कभी कभी'
इतरा लेती हूँ
'मैं भी'
ओ मेरे जीवन के श्रृंगार,
मेरे पहले प्यार,
'तुम' आओ
तो बसंत आये। .!!अनु!!
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
सुन्दर...
तुम्हारी यादों के
चंद आँसूं,
पलकों पर सजा
'कभी कभी'
इतरा लेती हूँ
'मैं भी'------------------------------ ,ऐसे भी इतराया जाता है वियोग श्रृंगार का सुंदर निरूपण किया है आपने बधाई बधाई
लो को सिंगल कोट या इन्वर्टेड कॉमा में क्यों किया है ?
सादर
आदरणीय , बहुत मार्मिक प्रस्तुति है , आपको हार्दिक बधाई ॥
vijay nikore जी बहुत बहुत आभार आपका
annapurna bajpaiजी बहुत बहुत शुक्रिया।
जितेन्द्र 'गीत' जी बहुत बहुत शुक्रिया।
//'बसन्त' तो मेरे
मन का भी था,
रह गया उम्र के
उसी मोड़ पर,
लौटा ही नहीं,
जिंदगी उस
फफोले की मानिंद है,
जो रिसता है
आहिस्ता आहिस्ता,
बेइंतहां दर्द के साथ,
परन्तु सूखता नहीं,//
अति सुन्दर अभिव्यक्ति, मन को छू गई। बधाई।
बहुत खूब अनीता जी , सुंदर वर्णन । बधाई आपको ।
नहीं खिलता
मेरे चेहरे पर,
सरसों के फूल का
पीला रंग,
पलाश के फूल
हर बार की तरह
इस बार भी
मुझे रिझाने में
नाकामयाब रहे,
बसंत ऋतू पर प्रकृति के सौन्दर्य और विरह-वेदना का बहुत सुंदर शब्दों में चित्रण करती पंक्तियाँ , बधाई स्वीकारें आदरणीया अनीता जी
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