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भावों के विहंगम

तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से

ऐ परिंदे!

हिलोर आ जाती है

स्थिर,अमूर्त सैलाब में

और...

छलक जाता है 

चर्म-चक्षुओं के किनारों से

अनायास ही कुछ नीर.

हवा दे जाते हैं कभी

ये पर तुम्हारे

आनन्द के उत्साह-रंजित

ओजमय अंगार को,

उतर आती है

मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,

अमृत की तरह.

विखरते हैं जब

सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग,

तेरे आ बैठने से.

चेतना फूंकती है सुगंधी

जड़, जीर्ण और...अचेतन में.

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है.

-विन्दु

(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Vindu Babu on March 11, 2014 at 4:10pm
आदरणीय शिज्जू जी:

आपका बहुत शुक्रिया इस उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए.
असाधारण तरीके का तो मुझे ज्ञान नहीं लेकिन जिस भाव से इस कविता का उद्गम हुआ वह मुझे अवश्य असाधारण कर रहा था.
आपने कहा //बहुत कुछ सीखने को मिलता है//
यह आपकी सूक्ष्म दृष्टि और उदारता है।
आपको पुन: हार्दिक धन्यवाद देती हूं आदरणीय शिज्जू जी.
सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 10, 2014 at 9:20am

आदरणीया वंदना जी बहुत खूबसूरत रचना है मजमून को असाधारण तरीके से आपने अभिव्यक्त किया है। जो रचना आपने प्रस्तुत की है उससे बहुत कुछ सीखने को मिलता है बहुत बहुत बधाई आपको।

Comment by Vindu Babu on March 4, 2014 at 10:45pm
आदरणीय सौरभ सर:
आपकी टिप्पणी ने रचना को जो महत्व प्रदान किया है वो शायद रचनाकर्म में भी नहीं था
//इस मंच पर इतने गहन भावों की कोई कविता हमने बहुत दिनों के बाद पढ़ी है. किसी संयत विचार और जागरुक पाठक के लिए आपकी कविता वस्तुतः आशा की किरण लेकर आयी है// इतना मान...सच में इस योग्य है यह अभिव्यक्ति!
आपका बारम्बार हृदयतल से आभार आदरणीय।

शुरुआती पंक्तियाँ...जिन्हें अंतिम रूप देने में कुछ समय अधिक अवश्य लगा था,लेकिन इसे समूचे ब्रम्हाण्ड के संतुलन और उसकी एकसारता के तथ्य से जोड़ कर आपन और विस्तृत कर दिया है।
ये amazing line किसकी है आपकी या...??

आपकी उदात्त प्रतिक्रिया ने मुझे बहुत उर्जान्वित किया है।
इतनी आत्मीय शुभकामनाओं के लिए आभारी हूँ आदरणीय.
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 1:11am

तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर, अमूर्त सैलाब में

उपरोक्त पंक्तियों का भावार्थ प्रस्तुत करना जितना सरल दिख रहा है वह उतना सरल भी नहीं. अलबत्ता क्लिष्ट नहीं, तो अत्यंत विस्तृत अवश्य है. यह समूचे ब्रह्माण्ड के संतुलन और उसकी एकसारता के तथ्य को साझा करता हुआ कथ्य है. इसे यों समझें -- A butterfly ruffles its wings in the New Zealand, it starts raining accordingly in South Africa.

हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक

आनन्दातिरेक का स्थूल प्रतिरोपण और अधरोष्ठ की मद्धम चमक का बिम्ब ! वन्दनाजी, विस्मित कर रहा है आपका काव्य-संसार ! सतत समर्थवान चेतना की आभा कायिक ऊर्जस्विता को कितना संपुष्ट करती है यह अनुभवजन्य मात्र होता है, जो संवेदना और अनुभूति के अति उच्च स्तर पर संभव है.

इस मंच पर इतने गहन भावों की कोई कविता हमने बहुत दिनों के बाद पढ़ी है. किसी संयत विचार और जागरुक पाठक के लिए आपकी कविता वस्तुतः आशा की किरण लेकर आयी है.

इस समय, जबकि बहुसंख्य पाठक इस मंच पर सामान्य बिम्बों पर लसर-पसर हो जाते दीखते हैं, इन आध्यात्मपगे बिम्बों को प्रस्तुत करना आपकी रचनाधर्मिता के साहस को उजागर करता है

हार्दिक बधाइयाँ और अशेष शुभकामनाएँ

Comment by Vindu Babu on February 21, 2014 at 9:34pm

आदरणीय बृजेश सर:

आपके प्रश्न के लिए हृदयतल से आभारी हूँ...

जहाँ तक मेरी समझ रही स्पष्ट करने का प्रयास कर रही हू

/या फिर दूर.../ इससे  मेरा आशय था-चिन्तन/मनन के पथ पर दूर तक  चलते-चलते जिस स्थिति में पहुंचते हैं वो.

और /यथार्थ के  उस यथार्थ में/ कहने का मतलब है;जो जीवन का यथार्थ है उसकी तह तक जाने का प्रयास करने पर जो हासिल होता है वो यथार्थ.

आशा है मैं अपना मन्तव्य स्पष्ट कर पाई,आपसे पुनः प्रतिक्रिया के लिए निवेदन है।

सादर

Comment by Vindu Babu on February 21, 2014 at 9:19pm

आदरणीया अन्नपूर्णा दी...आपका हार्दिक आभार सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए।

सादर

Comment by बृजेश नीरज on February 21, 2014 at 7:32pm

 बहुत ही सुन्दर! बहुत-बहुत बधाई!

आपके अध्ययन और चिंतन-मनन का प्रभाव अब आपकी रचनाओं में दिखने लगा है!

//या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,// इस पंक्ति का अर्थ स्पष्ट करने का कष्ट करें!

सादर!

Comment by Vindu Babu on February 18, 2014 at 8:37am

आदरणीय आशुतोष जी अपने रचना को सराहा... मेरा मनोबल बढ़ाया....आपका हार्दिक आभार

सादर

Comment by annapurna bajpai on February 14, 2014 at 11:43pm

वाह !!! अत्यंत सुंदर , भावों की अभिव्यक्ति , बहुत बधाई प्रिय वंदना । 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 14, 2014 at 6:19pm

बोल,भावों के विहंगम!

है कहाँ तेरा घरौंदा?

कण-कण में या हृदय में,

या फिर दूर...

यथार्थ के उस यथार्थ में,

जो कई बार अननुभूत रह जाता है.इस बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें ..सादर 

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