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"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था,  उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by vandana on February 22, 2014 at 7:27am

गहरा व्यंग्य ..... क्या प्रकृति क्या समाज चारों तरफ यही स्थिति है ,बहुत शानदार लघुकथा आदरणीय प्रभाकर सर 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 3:55pm

आ० विजय निकोर जी, आपकी सराहना का दिल से शुक्रिया।  

Comment by vijay nikore on February 21, 2014 at 2:58pm

गूढ़ अर्थ लिए, सुन्दर संदेश देती इस लघु कथा के लिए आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई योगराज जी।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:22am

रचना पसंद करने और सराहने के लिए हार्दिक आभार भाई जीतेन्द्र जी.              


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:22am

खिज़ा से घबरा जाते तो कोई बात नहीं गुमनाम साहिब, यहाँ तो लोग बहार से बहार से घबरा कर खिज़ां खरीद रहे हैं.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:22am

रचना की इतने हृदयग्राही शब्द में प्रशंसा करने हेतु सच्चे अंतर्मन से धन्यवाद आ० गिरिराज भंडारी जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:21am

शायद भारत के इंडिया होते जाने का किस्सा भी तो कुछ ऐसा ही है न ? आपके उत्साहवर्धन का दिल से शुक्रिया भाई धर्मेन्द्र सिंह जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:21am

सादर धन्यवाद आ० सरिता भाटिया जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:21am

सादर धन्यवाद आ० अन्नपूर्णा जी.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 21, 2014 at 11:21am

लघुकथा ने आपको छुया, यह जान कर बहुत अच्छा लगा. हार्दिक आभार भाई राहुल देव जी.

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