"भई वाह, तुम्हारे हरे भरे केक्टस देख कर तो मज़ा ही आ गया."
"बहुत बहुत शुक्रिया."
"लेकिन पिछले महीने तक तो ये मुरझाए और बेजान से लग रहे थे"
"बेजान क्या, बस मरने ही वाले थे."
"तो क्या जादू कर दिया इन पर ?"
"घर के पिछवाड़े जो बड़ा सा पेड़ था वो पूरी धूप रोक लेता था, उसे कटवाकर दफा किया, तब कहीं जाकर बेचारे केक्टस हरे हुए."
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
गहरा व्यंग्य ..... क्या प्रकृति क्या समाज चारों तरफ यही स्थिति है ,बहुत शानदार लघुकथा आदरणीय प्रभाकर सर
आ० विजय निकोर जी, आपकी सराहना का दिल से शुक्रिया।
गूढ़ अर्थ लिए, सुन्दर संदेश देती इस लघु कथा के लिए आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई योगराज जी।
रचना पसंद करने और सराहने के लिए हार्दिक आभार भाई जीतेन्द्र जी.
खिज़ा से घबरा जाते तो कोई बात नहीं गुमनाम साहिब, यहाँ तो लोग बहार से बहार से घबरा कर खिज़ां खरीद रहे हैं.
रचना की इतने हृदयग्राही शब्द में प्रशंसा करने हेतु सच्चे अंतर्मन से धन्यवाद आ० गिरिराज भंडारी जी.
शायद भारत के इंडिया होते जाने का किस्सा भी तो कुछ ऐसा ही है न ? आपके उत्साहवर्धन का दिल से शुक्रिया भाई धर्मेन्द्र सिंह जी.
सादर धन्यवाद आ० सरिता भाटिया जी.
सादर धन्यवाद आ० अन्नपूर्णा जी.
लघुकथा ने आपको छुया, यह जान कर बहुत अच्छा लगा. हार्दिक आभार भाई राहुल देव जी.
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