11212 11212 11212 11212
ये न पूछ शाम ढली किधर , तू ये देख चाँद निकल रहा
समाँ सुर्मयी था जो रात का , वो भी चंपई मे बदल रहा
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ये तो हौसले की ही बात है ,बड़ी तेज धूप है चार सूँ
किसी सायबाँ का पता नही ,बिना आसरा कोई चल रहा
***
मै क़दम मिला के न चल सका, ऐ जहाने नौ तेरी चाल से
मेरी कोशिशें हुई रायगाँ, मै क़दम क़दम पे फिसल रहा
***
रायगाँ = व्यर्थ
तेरा मुस्कुराना ग़ज़ब किया, तुझे क्या कहूँ मेरी हमनफ़स
वो जो मर चुका मेरा ख़्वाब था ,मेरी आखों में वो मचल रहा
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हमनफ़स = साथी , मित्र
ये विचित्रता भी तो देखिये , कि झुकी है डाली फलों लदी
कहीं घट भरा हुआ मौन है , जो अधूरा है वो उछल रहा
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यहाँ जाविदाँ भला कौन है, कभी थे यहाँ, वो नही रहे
न वो बादशाह न फ़र्द है, न वो आज है न वो कल रहा
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जाविदाँ = अमर ,
ये जो बदलियाँ बिना ख़ौफ़ के, लगीं घूमने सरे आसमाँ
यहाँ चाँदनी है डरी हुई , कहीं चाँद छुप के निकल रहा
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न ही दर्या है न ये बह्र है , न ये कोई झील है गर्म सी
ये तो दर्द का वो पहाड़ है , जो है आंच पाके पिघल रहा
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीर सौरभ भाई , आपकी उत्साह वर्धक सराहना से बहुत खुशी हुई , ऐसे ही स्नेह बनाये रखें , सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
क्या बात है !! .. आदरणीय, आप जहाँ से ये ग़ज़ल कह रहे हैं इसके आगे सिर्फ़ और सिर्फ़ ग़ाल होती है. दाद दाद दाद .. भरपूर दाद है.
ये जो बदलियाँ बिना ख़ौफ़ के, लगीं घूमने सरे आसमाँ
यहाँ चाँदनी है डरी हुई , कहीं चाँद छुप के निकल रहा
क्या कमाल का शेर हुआ है !
यही क्यों करीब-करीब सभी हैं..
शुभ-शुभ
आदरणीय वीनस भाई , आपकी सराहना से ग़ज़ल धन्य हुई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥ आदरणीय , मेरी हर सफलता श्रेय बह के आप तक जी जायेगा ॥ आपका दिल से शुक्रिया ॥
वाह आप तो बह्र मास्टर हो गए
जिंदाबाद ग़ज़ल है ... उस्तादों को भी पसीना आ जाए ..
आदरणीय शिज्जू भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥ आदरणीय ' चार सू ' सही शब्द बतलाने के लिये आपका अलग से शुक्रिया , मै ज़रूर सुधार कर लूंगा ॥ पुनः आभार ॥
आदरणीय गिरिराज सर ग़ज़ल बहुत अच्छी हुई है खूबसूरती से आपने बह्र को निभाया भी है, बस "चार सूँ" है उसे "चार सू" कर लीजिये
सादर,
आदरणीय मुकेश भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।
WAAH WAAH WAAH MITRA KHOOB
आदरणीय जितेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
बहुत लाजबाब गजल हुयी आदरणीय गिरिराज जी
ये विचित्रता भी तो देखिये , कि झुकी है डाली फलों लदी
कहीं घट भरा हुआ मौन है , जो अधूरा है वो उछल रहा..........वाह! क्या बात है, ढेरों बधाइयाँ
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