221 2122 222 1222
बीरान जिन्दगी में वो आयी बहारों सी
सहरा में तपते जैसे कोई आबशारों सी
लगती है इक ग़ज़ल की ही मानिंद वो मुझको
उसकी तो हर अदा ही हो जैसे अशारों सी
जुल्फों को जब गुलों से है उसने सजाया तो
मुझको लगी अदा ये यारों चाँद तारों सी
जब साथ साथ चलके भी वो दूर रहती है
तब लगती इक नदी के ही वो दो किनारों सी
मौसम हसींन सर्द है गर हो गयी बारिश
होगी हसींन सी कली वो बेकरारों सी
लव चूमना गुलों के हैं आसाँ कहाँ भ्रमर
खारों की फ़ौज ही खडी है पहरेदारों सी
जब चूर चूर वक़्त से लड़ते हुए थे हम
बांहों का हार ले खडी थी वो सहारों सी
उस नाजनी के हुस्न की चर्चा करूँ मैं क्या
गुल सी हसींन शोलों सी शबनम शरारों सी
खामोश रह के बोलने का जानती है फन
उसकी तमाम बात तो होती इशारों सी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नीरज जी , केवल जी , जीतेन्द्र जी ..आप सभी का तहे दिल धन्यवाद ..सादर
बहुत खुबसूरत गजल कही आपने आदरणीय डा. आशुतोष जी, हार्दिक बधाई स्व्वीकारें
आ0 आशुतोष भार्इ जी, क्या बात है...! बहुत ही सुन्दर गजल कही है। हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
बहुत खूब ग़ज़ल कही है
खामोश रह के बोलने का जानती है फन
उसकी तमाम बात तो होती इशारों सी... क्या कहने .. बहुत सुन्दर.
बेहद खूबसूरत गजल , बधाई आपको आ0 आशुतोष जी ।
आदरणीय वैद्यनाथ जी ..मेरी रचना आपको पसंद आयी आपके स्नेहिल शब्द मुझे नूतन श्रजन की उर्जा से लबरेज करते है सादर धन्यवाद के साथ
बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय ...लाजवाब |
जब साथ साथ चलके भी वो दूर रहती है
तब लगती इक नदी के ही वो दो किनारों सी...क्या कहने !
आदरणीया मीना जी ..हौसला अफजाई के लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर
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