अहसासों को
प्रज्ञ तुला पर कब तक तोलूँ
चुप रह जाऊँ
या अन्तः स्वर मुखरित बोलूँ
जटिल बहुत है
सत्य निरखना-
नयन झरोखा रूढ़ि मढ़ा है,
यद्यपि भावों की भाषा में
स्वर आवृति को खूब पढ़ा है
प्रति-ध्वनियों के
गुंजन पर इतराती डोलूँ
प्राण पगा स्वर
स्वप्न धुरी पर
नित्य जहाँ अनुभाव प्रखर है
क्षणभंगुरता - सत्य टीसता
सम्मोहन की ठाँव, मगर है
भाव भूमि पर
आदि-अंत के तार टटोलूँ
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की फिर क्या परिभाषा
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
रचना पर आपकी उत्साहवर्धक सराहना के लिए आभारी हूँ आ० जितेन्द्र जी
आ० प्रदीप कुशवाहा जी
आपको रचना में सन्निहित भाव पसंद आये यह जान मुझे संतोष हुआ
सादर धन्यवाद
नवगीत की अंतर्धारा पर आपकी सराहना के लिए धन्यवाद आ० केवल प्रसाद जी
बहुत सुंदर , अनुपम रचना आदरणीया डा.प्राची जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की फिर क्या परिभाषा
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ
शानदार भाव और प्रस्तुति
सादर बधाई आदरणीया जी
आ0 प्राची मैम जी, अप्रतिम...! शब्द चयन, भाव व लय रस सभी तरह से अप्रतिम गीत। हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,
रचना को समय देने और सराहने के लिए आपकी आभारी हूँ आदरणीया अन्नपूर्णा बाजपेयी जी
बहुत खूब , आ0 प्राची जी इस अनुपम रचना कर्म के लिए आपको हार्दिक बधाई ।
किसी भी अभिव्यक्ति की यह सफलता होती है यदि वो पाठक के मन मस्तिष्क में चिंतन मनन के कुछ बिंदु दे सके... इस नवगीत से आपको सोचने पर बाध्य करते कुछ तथ्य कथ्य मिले ..यही मेरे लिए संतोष की बात है
हार्दिक धन्यवाद आ० कल्पना मिश्रा बाजपेयी जी
इस प्रस्तुति का कथ्य आपको सार्थक लगा और समुच्चय में रचना आपको पसंद आयी, यह मेरे प्रयास के प्रति मुझे आश्वस्त कर रहा है
नवगीत पर आपकी सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद आ० मनोज सिंह जी
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