सीमाओं मे मत बांधो
सीमाओं मे मत बांधो, मैं बहता गंगा जल हूँ ।
गंगोत्री से गंगा सागर
गजल सुनाती आई
गंगा की लहरों से निकली –
मुक्तक और रुबाई ।
भावों मे डूबा उतराता , माटी का गीत गजल हूँ
सीमाओं मे मत बांधो , मैं बहता गंगा जल हूँ ।
यमुना की लहरों पर –
किसने प्रेम तराने गाये ?
राधा ने कान्हा संग –
जाने कितने रास रचाए ?
होंगे महल दुमहले कितने, मैं तो ताजमहल हूँ
सीमाओं मे मत बांधो , मैं बहता यमुना जल हूँ ।
मैं कबीर का ढाई आखर,
मेरा कहाँ ठिकाना ?
इस दुनियाँ मे लगा हुआ है
सबका आना – जाना ।
कबीरा का ताना बाना मैं, ढाका का मल मल हूँ
सीमाओं मे मत बांधो मैं बहता नदिया जल हूँ ।
--- मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सर जी
सादर
सीमाओं में किसी को कोई बाँध नहीं सकता जब तक वो स्वयम न चाहे .
गंगा को प्रदूषित कर दिया
यमुना और ताज महल का हाल जग जाहिर है
शानदार रचना का अस्तित्व अपनी जगह बेहतर बधाई
वाह वा !! क्या बात है , आदरणीय , बहुत सुन्दर गीत रचना की है , हार्दिक बधाइयाँ ॥
बहुत सुंदर रचना प्रस्तुति आदरणीय ब्रह्मचारी जी, हार्दिक बधाई आपको
बहुत सुन्दर रचना आदरणीय संग्रहणीय !!!!
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