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ग़ज़ल- रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया

रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया
रौशनी के वास्ते खुद को जलाता रह गया

पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए
गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया

कोठियाँ बेशक मेरे बच्चों ने कर दी हैं खड़ी
पर तुम्हारी याद का उसमें अहाता रह गया

आज मुझको काम से इक रोज की फुर्सत मिली
आज दिनभर लाडला बस मुस्कुराता रह गया

धन की देवी आपके घर क्यों कभी रुकती नहीं
चौक पर बैठा नजूमी ये बताता रह गया

आँख का हर प्रश्न आंसू की सतह में बह गया
और बेटा देश से बाहर कमाता रह गया.
- अनुराग 'अनुभव' ( मौलिक)

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Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 16, 2014 at 9:29pm

आ0 अनुराग भार्इजी,  सुन्दर गजल हुर्इ है, बधार्इ स्वीाकारें। किन्तु मुझे काफिया....'कुलबुलाता'  और 'जलाता' में मेल नहीं लगता है। कृपया स्पष्ट करना चाहें। सादर,  आपको सपरिवार होलिकोत्सव की शुभकामनाओं सहित हार्दिक बधार्इ।  सादर

Comment by Omprakash Kshatriya on March 16, 2014 at 7:43am

पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए
गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया

कोठियाँ बेशक मेरे बच्चों ने कर दी हैं खड़ी
पर तुम्हारी याद का उसमें अहाता रह गया........................ शानदार . बधाई 

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on March 15, 2014 at 8:56pm

कोठियाँ बेशक मेरे बच्चों ने कर दी हैं खड़ी
पर तुम्हारी याद का उसमें अहाता रह गया

आज मुझको काम से इक रोज की फुर्सत मिली
आज दिनभर लाडला बस मुस्कुराता रह गया

badhai sunder gazal ke liye

Comment by gumnaam pithoragarhi on March 15, 2014 at 12:58pm

रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया
रौशनी के वास्ते खुद को जलाता रह गया

पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए
गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया

khoob bhaai ji badhaai


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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 15, 2014 at 8:12am

वाह बहुत खूब भाई अनुराग जी बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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