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संध्या बेला मधुरिम मधुरिम

संध्या बेला मधुरिम पल है

लाल कपोल लिए तन सूरज

ढलता पल-पल छिन-छिन हर पल

सहलाती पद उसके संध्या

करती सेवा उसकी रज-रज। 

मृग़ छौने थक जाते चलकर

दिवा चली सुस्ताने पल भर

स्वप्निल सपने देती संध्या

सब को मंजिल तक पहुंचाकर। 

बीता वासर बिछी चाँदनी

वृक्ष खड़े अलसाए लत-पत

खग और विहग पुकारे हरि को

वन्य माधुरी फैली इत-उत। 

सोचो संध्या गर ना होती

तो क्या सो पाते हम जी भर?

कर पाते, तन नूतन अपना

जगती; जी पाती क्या जी भर। 

कल्पना मिश्रा बाजपेई

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by kalpna mishra bajpai on March 26, 2014 at 9:17pm

आप सब गुणी जनों को मेरा नमन । सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 26, 2014 at 9:09pm

संध्या बेला पर बहुत सुन्दर कविता प्रस्तुत की है आ० कल्पना जी..

हार्दिक बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 22, 2014 at 8:36am

संध्या की बेला का सुंदर शब्दों में चित्रण करती रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीया कल्पना जी

Comment by Neeraj Neer on March 21, 2014 at 6:50pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ..

Comment by ram shiromani pathak on March 20, 2014 at 9:51pm

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति  आदरणीया।।।।। हार्दिक बधाई आपको 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 4:52pm

आदरणीया, कल्पना जी , संध्या की सारगर्भित विशेषताओं से परिपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई .

कृपया ध्यान दे...

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