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अरुण से ले प्रकाश तू / गीत (विवेक मिश्र)

अरुण से ले प्रकाश तू
तिमिर की ओर मोड़ दे !

मना न शोक भूत का
है सामने यथार्थ जब
जगत ये कर्म पूजता
धनुष उठा ले पार्थ ! अब
सदैव लक्ष्य ध्यान रख
मगर समय का भान रख
तू साध मीन-दृग सदा
बचे जगत को छोड़ दे !

विजय मिले या हार हो
सदा हो मन में भाव सम
जला दे ज्ञान-दीप यूँ
मनस को छू सके न तम
भले ही सुख को साथ रख
दुखों के दिन भी याद रख
हृदय में स्वाभिमान हो
अहं को पर, झिंझोड़ दे !

अथाह दुख समुद्र में 
कभी कहीं जो तू घिरे
न सोच, पाल तान दे
कि दिन बुरा अभी फिरे
तू बीच सिन्धु ज्वार रख
न संशयों के द्वार रख
उदासियों की सीपियाँ
पड़ी हुईं जो, फोड़ दे !



(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 5:28pm

सराहना के लिए आभारी हूँ आदरणीया अंजू मिश्रा जी.

Comment by ANJU MISHRA on March 23, 2014 at 5:20pm

कर्मशीलता का भाव प्रस्तुत करता हुआ बहुत सुंदर गीत .....

Comment by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 5:19pm

आदरणीय एडमिन महोदय,

उपरोक्त गीत में कृपया निम्नलिखित संशोधन कर दें -
(१) 'दुःखों' के स्थान पर 'दुखों' कर दें.

(२) 'समुद्र से' के स्थान पर 'समुद्र में' कर दें.

(३) 'कि दिन हरेक के फिरे' के स्थान पर 'कि दिन बुरा अभी फिरे' कर दें.

साभार

विवेक मिश्र 

Comment by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 5:18pm

आदरणीय सौरभ सर -
ओबीओ मंच की किसी भी रचना पर आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धन का कार्य तो करती ही है, साथ ही हर बार कुछ नयी बातें भी सिखा जाती है. मुझ जैसे एक नव-रचनाकार को भला और क्या चाहिये..? 

/"दुःख" की कुल मात्रा ३ होती है/ -

निश्चित रूप से यह मेरे लिए नयी जानकारी है (ग़ज़ल आदि में 'दुःख' को २ ही गिनता आया हूँ, शायद इसलिये..). और अभी-अभी उच्चारण करते समय ऐसा मालूम हुआ कि 'दुःख', असल में 'दुह्+ख' है, इसलिए इसकी मात्रा ३ ही होगी. (वाह्ह्ह सर.. एक नयी चीज़ मालूम हुई).

/समुद्र के असीम इकाई होने से इस द्वारा घिर जा ना उचित नहीं. इसे "समुद्र में" किया जाना उचित होगा/

- इस 'में' और 'से' के बारे में मैंने भी काफी सोचा पर आखिर में कन्फ्युजिया ही गया. आगे से ध्यान रखने का प्रयास रहेगा.

/फिरे  की जगह पर फिरें होना चाहिये. अन्यथा कि दिन बुरा अभी फिरे आदि किया जा सकता है/

- आपका सुझाव उपयुक्त जान पड़ता है. सर आँखों पर.

सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 23, 2014 at 3:37pm

लाम-ग़ाफ़ की आवृति में सुन्दरता से सधा यह गीत अपने शिल्प के कारण एक पाठक को पुलकित तो करता ही है, संवेदनशील शब्दों के माध्यम से सापेक्ष हुए भाव-संप्रेषण के कारण ऊर्जस्वी भी करता है. सकारात्मक भाव का संचार करते इस गीत के लिए हार्दिक बधाई, विवेक भाईजी. गीत के बंद हताशा से घिरे, तन्द्रा में पड़े, तमस भाव से आच्छादित मनस को सचेत कर उसे विन्दुवत कर देने का माद्दा रखते हैं. यही तो ऐसी रचनाओं का हेतु है.

बहुत-बहुत बधाई इस प्रखर गीत के लिए, भाईजी.

 

दुःख की कुल मात्रा ३ होती है. इसे द्विमात्रिक रूप में लाने के लिए दुख लिखा जाता है. दुःख का यह रूप यानि दुख इसके हिज्जे को गलत नहीं बनाता.

अथाह दुःख समुद्र से

कभी कहीं जो तू घिरे... . . समुद्र के असीम इकाई होने से इस द्वारा घिर जा ना उचित नहीं. इसे समुद्र में किया जाना उचित होगा जोकि कार्मिक जीवन का परिचायक हो कर सामने आता है.


न सोच, पाल तान दे
कि दिन हरेक के फिरे.....  .. यहाँ दिन को हरेक के  साथ प्रस्तुत कर बहुवचन की तरह प्रयुक्त किया गया है. इस हिसाब से फिरे  की जगह पर फिरें होना चाहिये. अन्यथा कि दिन बुरा अभी फिरे आदि किया जा सकता है.

शुभेच्छाएँ

Comment by विवेक मिश्र on March 23, 2014 at 3:08pm

भाई वीनस जी! लगभग तीन महीने के प्रयास के बाद मेरे जीवनकाल का यह प्रथम गीत (या गीत जैसा ही कुछ) हुआ है और उस पर आपकी सकारात्मक टिप्पणी से मन भाव-विभोर है. उत्साहवर्धन हेतु आभार मित्र.

Comment by वीनस केसरी on March 23, 2014 at 2:34pm

आपके गीत ने एक नई उर्जा का संचार किया हैमुझे ऐसे गीत की साख्त ज़रूरत थी

शुक्रिया दोस्त

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