ताकि, बचा सकूँ हताशा से
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इसलिये नही कि ,
सतत चलती सीखने की प्रक्रिया से भागना चाहता हूँ
इसलिये भी नही कि ,
मेरे लिए सब कुछ जाना-जाना , सीखा-सीखा है ,
या, अब जानने को बचा नही कुछ
इसलिये तो और भी नहीं कि ,
मौन रह कर
हाथ समर्थन मे उठा कर
अपना अज्ञान छुपा लूँ
अपना बीमार चेहरा
कमज़ोर शरीर
जिसे बारम्बार सबने खुले आम देखा है , जाना है ,
छिपा सकूँ , मौन में
जग जाहिर को , छिपा के करूंगा भी क्या ?
इसलिये और केवल इसलिये कि,
कोई प्यारा , बहुत ही प्यारा
दिल खोल के , अपनी कमाई लुटाना चाहता है
बांट देना चाहता है ,
हर उसको , जो लेना चाहे ,
सही मन से , सही नीयत से
बहुत बड़ी झोली लेकर घूम रहा है
अपनी बड़ी बड़ी हथेलियों से भर भर के बांटते, लुटाते
अपना समस्त अर्जित ,
मगर अफसोस !
हमारे बड़े बड़े शरीर में लगे छोटे छोटे हाथ
और उससे जुड़ी और छोटी छोटी हथेलियों में
समाता नही है दान ,
फैल रहा है , ज़मीन पर
साथ ही
फैल रही है हताशा , उदासी
देने वाले की सूरत में ,
जो स्वाभाविक तो है ,
पर जायज नहीं
क्यों कि,
गाय पर पाठ पहली कक्षा मे भी पढाते हैं
और डाक्टरेट करने वाले गाय पर शोध कार्य भी करते हैं
शायद अंतर है कक्षाओं में जो मन में बनी हैं
मै केवल और केवल बचाना चाहता हूँ हताशा से उसे
कहना चाहता हूँ ,
बताना चाहता हूँ
हमारी हथेलियाँ बड़ी होंगी ज़रूर ,
होनी ही पड़ेगी
मुझे दोनों देने वाले और लेने वाले पर पूरा भरोसा है ।
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आपने जो कुछ कहना चाहा है वह संप्रेषित हुआ है लेकिन सही कहूँ तो दान प्रदाता या लाभार्थी की अवधारणा से बहुत विलग एक ’साझा की संस्कृति’ परम्परा रही है जिसने भारतीय भूभाग पर सम्बन्धों और सात्विक वैचारिकता को सुदृढ़ किया है.
अपनी लघुता को नहीं स्वीकारना तामसिक गुणों का परिचायक है. इससे उबरने के लिए पूरी प्रक्रिया है. परन्तु आज कई कारण हैं कि कोई इस प्रक्रिया से अपनी आँखें चुरा लेता है. वहीं अपने होने की महत्ता को बहुगुणित कर बखानना तामसिक और राजसिक की सामासिक अवधारणा के कारण संभव होता है. कहते हैं न, आदरणीय, अनुबधं क्षयं हिंसाम् अनवेक्ष्य च पौरुषं.. ! ..क्या करेंगे ?.. अध्ययन के अंतर्गत मनन और मंथन को हाशिये पर रख कर प्रवचन की प्रक्रिया चल पड़ी है.
सतत प्रयास तो ये होना चाहिये कि उत्तरोत्तर मानसिक विकास हो. साहित्य उन्नयन तभी संभव है. परम संतोष हुआ कि ऐसी वैचारिकता को आपकी गहनता ने शब्दबद्ध किया है. आपकी प्रस्तुत रचना बहुत कुछ स्पष्ट करती हुई चलती है. लेकिन इस स्पष्टता को मिला आखिर प्रतिसाद ही क्या है? लेकिन यह भी सही है कि प्रतिसाद की परवाह करता ही कौन है जिसने महत यज्ञ करना स्वीकार किया हो !
सादर
एक विशेष दर्शन से लैस.... सराहनीय रचना !!!
कहना चाहता हूँ ,
बताना चाहता हूँ
हमारी हथेलियाँ बड़ी होंगी ज़रूर ,
होनी ही पड़ेगी मुझे दोनों देने वाले और लेने वाले पर पूरा भरोसा है|
एकांत में अनुभव भरे जीवन की अंतर मनोदशा को बहुत ही सकारात्मक व् गहरे भाव दिए आपने, आपकी लेखनी को नमन आदरणीय
गिरिराज जी
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