2122- 2122- 2122- 212
रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था
सब दिखाई दे गया आँखो में जो पर्दा न था
झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं
झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था
शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी
कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था
कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था
ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक
आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि अब रस्ता न था
आप अपनी हैसियत को लें समझ अब मोहतरम
वो सिकंदर भी झुका था जो कभी हारा न था
उँगलियाँ थी नाम थे पहचान थी सबकी मगर
वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर, रचना को आपका अनुमोदन मिला रचनाकर्म सार्थक हुआ, मेरी रचना को मान देने के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
सादर
झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं
झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था
शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी
कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था
कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था
उँगलियाँ थी नाम थे पहचान थी सबकी मगर
वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था ...
कमाल कमाल कमाल ! .. एका-एक शेर कमाल !!
दिल से कहा है आपने.. तो हमने भी मन से पढ़ा है. इस खूबसूरत और कामयाब ग़ज़ल के लिए दिल से दाद दे रहा हूँ.
आदरणीया कुन्ती जी आपका तहेदिल से शुक्रिया जो आपने मेरी रचना के मर्म को समझा एवं सराहा
आदरणीया डॉ प्राची जी रचना को समय देने एवं सराहने के लिये आपका दिल से आभार
बहुत ही जबरदस्त मार है....शिज्जू जी.
उँगलियाँ थी नाम थे पहचान थी सबकी मगर
वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था .....कोई माने या न माने..सादर
कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था..................वाह! बहुत सही बात कही है
इस कामयाब ग़ज़ल पर मेरी हार्दिक बधाई आ० शिज्जू जी
आदरणीय नीरज भाई आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय विजय सर आपका तहे दिल से शुक्रिया
बेहतरीन ग़ज़ल कही है आदरणीय शिज्जू साहब.. बहुत बधाई .. आखिरी शेर तो कमाल ही है ..
उँगलियाँ थी नाम थे पहचान थी सबकी मगर
वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था .
//कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था//
इस बहुत अच्छी गज़ल के लिए बधाई।
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