सार्थक हस्तक्षेप के कवि: महेंद्रभटनागर
— डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय
प्रोफे़सर, हिन्दी-विभाग, जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
हिम्मत न हारो!
कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन!
हिम्मत न हारो!
यदि आँधियाँ आएँ तुम्हारे पास
उनसे खेल लो,
जितनी बड़ी चट्टान वे फेकें तुम्हारी ओर
उसको झेल लो!
निरन्तर राह पर चलते रहोगे तो
तुम्हारा लक्ष्य तुमसे आ मिलेगा एक दिन!
हिम्मत न हारो!
हिम्मत न हारने की सीख देने वाले, कंटकों के बीच भी मन-पाटल के खिलने की आस्था लेकर चलने वाले, बड़ी-से-बड़ी चुनौतियों को स्वीकार करने वाले कवि महेंद्रभटनागर सच्चे अर्थों में प्रगतिशील चेतना को रचनात्मक आयाम देने वाले एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन के अनुभव सिर्फ़ मूर्त ही नहीं होते हैं, बल्कि वे बोलते हुए दिखाई देते हैं। महेंद्रभटनागर जिजीविषा के कवि हैं, वे गहन आत्मविश्वास के कवि हैं, सामाजिक सरोकारों के कवि हैं। स्वस्थ, सरल और निश्छल अनुभूतियों के साथ उनकी कविताएँ हमें हिम्मत देती हैं। इस प्रकार महेंद्रभटनागर की काव्य-चेतना का फलक काफ़ी विस्तृत है। वे एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। लेकिन प्रतिबद्धता की जड़ता उनमें लेशमात्र भी नहीं मिलती है। इसलिए उनके रचना-संसार का आयाम व्यापक है। और यही कारण है कि जहाँ एक ओर वे समाजवादी-यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ खड़े होते हैं, सामाजिक विषमताओं और कुप्रथाओं पर उँगली रखते दिखाई देते हैं, आस्था, विश्वास और दृढ़ता के स्वरों के साथ स्वर मिलाते दिखाई देते हैं, जीवन की विषमताओं और विद्रूपताओं के बीच भी संघर्ष की दृढ़ इच्छा-शक्ति को सँजोये हुए दिखाई देते हैं, वहीं प्रेम और प्रकृति से भी उनका उसी तरह का जुड़ाव दिखाई देता है। और यह प्रवृत्ति उनमें प्रारम्भिक दौर से ही देखने को मिलती है। प्रकृति और मनुष्य को वे एक साथ खड़ा देखते हैं। उनके यहाँ तारे भी हैं, नभ भी है, उपवन भी है, मेघ भी है, संध्या भी है, उल्कापात भी है, ग्रीष्म भी है, सवेरा भी है, और ऐसे ही न जाने कितने रूप हैं जहाँ प्रकृति के साथ-ही-साथ वे मानवीय जीवन-जगत की अनेकानेक स्थितियों-परिस्थितियों को उकेरने की कोशिश करते हैं।
कवि की चाहत, कवि की संवेदना संघर्षशीलता में विश्वास करती है। उसे बलिदान प्यारा है, गति प्यारी है, अडिगता प्यारी है। उसे पता है कि दुनिया के प्रलय के राग को जन्म देने वाले उसे जन्म देंगे, दमन की आँधियाँ भी चलेंगी, लेकिन मनुष्य को मौन नहीं होना है, दुखी नहीं होना है, घोर तिमिर के बीच उदास नहीं बैठना है, बल्कि हस्तक्षेप करना है, अपनी उपस्थिति को जताना है, उसे नभ की सीमा को लाँघना है, और अंधकार के सीने को चीरकर आगे बढ़ना है। इन सारी चाहतों को महेंद्रभटनागर अपनी प्रारम्भिक दौर की कविताओं में ही व्यक्त कर देते हैं। वे कहते हैं —
जलते रहो, जलते रहो!
चाहे पवन धीरे चले,
चाहे पवन जल्दी चले,
आँधी चले, झंझा मिलें,
तूफा़न के धक्के मिलें,
तिल भर जगह से बिन हिले
जलते रहो, जलते रहो!
इसलिए भी उसे अडिग रहना है, जलना है, संघर्ष करना है, सचेत रहना है क्योंकि —
सदियों बाद हिले हैं थर-थर
सामंती युग के लौह-महल
जनबल का उगता बीज नवल
धक्के भूकम्पी क्रुद्ध सबल!
सदियों बाद हँसी है जनता
करने नवयुग की अगवानी,
जीवन की अभिरुचि पहचानी
दफ़नाने को अश्रु-कहानी!
महेंद्रभटनागर अपनी कविताओं में जलने की बात इसलिए करते हैं क्योंकि वे नव-निर्माण की आकांक्षा रखते हैं, परिवर्तन की इच्छा रखते हैं, वे प्रेरित करते हैं, वे ‘नश्वर तारक’ से भी सीख लेने की बात करते हैं, वे जानते हैं कि जग में आकर्षण की अनेकानेक स्थितियाँ हैं और मनुष्य उनके जाल में फँसता रहा है और फँसता रहेगा लेकिन सच्चा मनुष्य वही है जो इस इंद्रजाल को छिन्न-भिन्न कर आगे बढ़ता है। वे अपने युग के कवि का भी आह्नान करते हैं, उससे भी चाहते हैं कि वह गति का साथ दे, गिरते को सँभाले, रूढ़ियों से मुक्ति की भावना को जाग्रत करे और प्राणवान गीतों की रचना करे ताकि मानवता उससे सीख ले सके, उससे अपनी दृष्टि को आँज सके। ‘युग कवि से’ बात करते हुए वे अपना पक्ष रखते हैं और अपनी चाहत को भी सामने लाते हैं —
ऐसे गीत नहीं गाने हैं!
जो गति का साथ नहीं देंगे
गिरते को हाथ नहीं देंगे
निर्धन त्रस्त उपेक्षित व्याकुल
जनता के भाव नहीं लेंगे
युग-कवि! तुमको हरगिज़, हरगिज़
ऐसे गीत नहीं गाने हैं!
कवि सवालों के बीच ही यह बात भी कह जाता है जो कवि-कर्म की ओर संकेत करती है —
नक़ली भावों के हलके स्वर
क्या हुए कभी भी कहीं अमर?
जब-तक सुख-दुख का अनुभव कर
न कहोगे जीवन-सत्य प्रखर,
अनुभूतिहीन मन से निकले
थोथे गीत नहीं गाने हैं!
महेंद्रभटनागर ‘विचारों के बल’ से नयी दुनिया को रचने के आकांक्षी हैं; वे ‘ज्योतिर्मय नव किरणों’ को जन्म देना चाहते हैं; ‘बंधनों की अर्गला’ से मानव को मुक्त करना चाहते हैं; ‘वेदना-बोझिल-हृदय’ के ताप को हरना चाहते हैं; मरघट हुए संसार में पीयूष की धारा बहाना चाहते हैं; ‘वे नव-सृजन की नींव का मज़बूत पत्थर’ बनना चाहते हैं; वे ‘अंतिम बूँद तक, हर श्वास तक’ मन की उलझनों के बीच ‘ज्योति में डूबा हुआ’ जीवन का दीप जलाना चाहते हैं। और इन सबके लिए ज़रूरी है —हस्तक्षेप, संघर्ष, लोहा लेना। इसलिए वे अमरता में विश्वास नहीं करते, वे जड़-पत्थरों को पूजने में विश्वास नहीं करते, वे तो कर्म में विश्वास करते हैं, संघर्ष में विश्वास करते हैं और कहते हैं —
आज जीवन की अमरता सोचना, अभिशाप है!
बंधनों की अर्गला में बद्ध युग-जीवन न हो
भय भरी उर में मनुज के एक भी धड़कन न हो,
हो मुखर हर आदमी, जो आज नत, चुपचाप है!
इस प्रकार, महेंद्रभटनागर मौन को मुखरता में बदलने की चाहत रखते हैं, नत को सिर उठा जीने का संबल देते हैं, वेदना से बोझिल हृदय के संताप को मिटाने की आकांक्षा रखते हैं। यह कवि का पक्ष है, उसका कवि-धर्म भी है। अपने कवि-धर्म का पालन करते हुए महेंद्रभटनागर लेखन के प्रारम्भ से ही अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट कर देते हैं। बदलता युग, अभियान, नयी चेतना, जिजीविषा, संतरण, संवर्त, संकल्प, जूझते हुए, जीने के लिए, आहत युग, अनुभूत क्षण आदि जैसे काव्य-संग्रर्हों की कविताएँ इस बात की साक्षी हैं कि वे हमेशा ज़िन्दगी को आगे बढ़ाने की सोच लेकर चले हैं और मानवता को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहे हैं। वे नव-निर्माण के आकांक्षी हैं, वे नयी संस्कृति की बात करते हैं; वे नयी रेखाओं को खींचने तथा नयी गंगा को बहाने की बात करते हैं; वे भविष्य के निर्माताओं का आह्नान करते हैं; वे तो ‘उसका’ और ‘हमारा’ के अन्तर को मिटा देना चाहते हैं। और इन्हीं सारी भावनाओं के साथ वे कहते हैं कि —
मैं निरन्तर राह नव-निर्माण करता चल रहा हूँ,
और चलता ही रहूंगा!
राह — जिस पर कंटकों का
जाल, तम का आवरण है,
राह — जिस पर पत्थरों की
राशि, अति दुर्गम विजन है,
राह — जिस पर बह रहा है
टायफ़ूनी-स्वर-प्रभंजन,
राह — जिस पर गिर रहा हिम
मौत का जिस पर निमंत्रण,
मैं उसी पर तो अकेला दीप बनकर जल रहा हूँ,
और जलता ही रहूंगा!
इस प्रकार महेंद्रभटनागर चलने में विश्वास रखते हैं, दीपक बनने की चाहत रखते हैं, वे जड़ता के पाश को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते हैं, ‘आहत युग’ की वेदना से बेचैन होते हैं, कुंठित स्वरों की स्थितियों से चिन्तित होते हैं। और इन सबके बीच तम को छिन्न-भिन्न करने की बात करते हैं, सृजन के नये गीत गाने की बात करते हैं, नये युग की प्रतिष्ठा के लिए लड़ने की बात करते हैं। वे निश्चय भरे स्वर में कहते हैं —
नव अंकुर फूट रहे रज से
भर कर जीवन की हरियाली
निश्चय ही फूटेगी नभ से
जनयुग के जीवन की लाली!
महेंद्रभटनागर को हम जीवन का शिल्पी कह सकते हैं, वे सुख-स्वप्नों को देखते हैं, वे मुस्कानों के प्रेमी हैं। इसलिए मानवता के समक्ष जब विनाश की स्थितियाँ खड़ी दिखाई देती हैं तब वे सावधान करते हुए कहते हैं —
रे जीवन के शिल्पी
सावधान,
सुख-स्वप्नों के दर्शी
सावधान,
मुसकानों के प्रेमी
सावधान!
इस प्रकार हम देखते हैं कि महेंद्रभटनागर का रचना-संसार व्यापक तो है ही साथ ही उसमें गहरी मानवीय चिन्ता है, उनके अपने सामाजिक सरोकार हैं। उनके लेखन में हमेशा हमें एक बेचैनी दिखाई देती है लेकिन यह बेचैनी उन्हें तोड़ती नहीं, उदास नहीं बनाती बल्कि उन्हें मानवता के हित में बेहतर सोचने एवं करने की प्रेरणा देती है। उन्हें मानव की शक्ति और सोच दोनों पर विश्वास है तभी तो वे मानते हैं कि आह हो या आँसू सभी के बीच आदमी जी रहा है क्योंकि उसमें प्यार की चाह बची है। प्यार की चाह से युक्त, आह और आँसुओं के बीच मानवीय चिन्ता से जुड़े रचनाकार के रूप में महेंद्रभटनागर अपनी अलग पहचान रखते हैं। प्रगतिशील सोच को वे सिर्फ़ सैद्धांतिक स्तर पर ही लंकर नहीं चले हैं बल्कि रचनात्मक धरातल पर उसे मूर्त करते भी दिखाई देते हैं। यह उनकी पहचान है, यह उनकी प्रकृति है और यही उनकी विशिष्टता है। अंत में महेंद्रभटनागर के ही शब्दों में कहना चाहूंगा —
स्थितियों का बदलना, टूटना
बेहद ज़रूरी है,
भले ही
नयी स्थितियाँ
नितान्त विरुद्ध हों
संदिग्ध हों।
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E-Mail : drmahendra02@gmail.com
M- 8109730048
Ph. 0751-4092908
Comment
एक पठनीय प्रस्तुति के लिए धन्यवाद, आदरणीय
सार्थक हस्तक्षेप के कवि: श्री महेंद्रभटनागर जी से साक्षात्कार कराने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री (डॉ) कौशलनाथ उपाध्याय जी
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