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ग़ज़ल - कचरों को दबाया जा रहा है ( गिरिराज भन्डारी )

2122     2122     2122     2122

चद्दरों से, सिर्फ़ कचरों को दबाया जा रहा है

साफ सुथरा इस तरह खुद को जताया जा रहा है

 

लूट के लंगोट भी बाज़ार में नंग़ा किये थे

फिर वही लंगोट दे हमको मनाया जा रहा है

 

रोशनी सूरज की सहनी जब हुई मुश्किल उन्हें तो  

देखिये राहू से मिल सूरज छिपाया जा रहा है

 

सभ्यता जिस देश की माँ-बाप की पूजा, वहाँ पर

माँ-पिता के नाम पर अब दिन मनाया जा रहा है

 

ज़िन्दगी क्या मौत क्या हम मुफ़लिसों के वास्ते, अब

क्या बतायें किस तरह खुद को बचाया जा रहा है

 

जिस हक़ीकत को समझ के लोग दानिश मन्द होते

उस हक़ीकत को किताबों से हटाया जा रहा है

मामले वे, पर्वतों से भी अटल लगते हैं उनको

बस बयानी फूँक से देखो उड़ाया जा रहा है

*************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by वेदिका on April 9, 2014 at 3:09pm
क्या कहिये गजल की तारीफ़ में……… सच पर से सारी झूठी परतें उखाड़ फेंकी
बधाई आ0 गिरिराज जी

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Comment by rajesh kumari on April 9, 2014 at 10:45am

जिस हक़ीकत को समझ के लोग दानिश मन्द होते

उस हक़ीकत को किताबों से हटाया जा रहा है----सच कहा आपने ...उम्दा शेर 

बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आ० गिरिराज जी बधाई आपको 

 

Comment by Arun Sri on April 8, 2014 at 1:46pm

लूट के लंगोट भी बाज़ार में नंग़ा किये थे

फिर वही लंगोट दे हमको मनाया जा रहा है............. आप भी कहाँ कहाँ घुमा लाए हैं गज़ल को ! ग़ज़लें आवारा हो गई हैं आप जैसो की संगत में आकर ! वर्ना महबूबा की गोद में पड़ी रहती थीं चुप-चाप ! :-))))))))

 


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 8, 2014 at 1:40pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आपकी उपस्थिति और ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 8, 2014 at 1:39pm

आ. बड़े भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 8, 2014 at 1:38pm

आ. जीतेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ॥


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Comment by गिरिराज भंडारी on April 8, 2014 at 1:37pm

आ. सलीम भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ॥

Comment by vijay nikore on April 8, 2014 at 12:32pm

बेहतरीन गज़ल के लिए बधाई, भाई गिरिराज जी।

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 7, 2014 at 12:56pm

छोटे भाई गिरिराज,

गंदी राजनीति ,  शासन  प्रशासन और व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य । हार्दिक बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 7, 2014 at 10:39am

चद्दरों से, सिर्फ़ कचरों को दबाया जा रहा है

साफ सुथरा इस तरह खुद को जताया जा रहा है...........वाह ! बहुत गहरा दृष्टिकोण

रोशनी सूरज की सहनी जब हुई मुश्किल उन्हें तो  

देखिये राहू से मिल सूरज छिपाया जा रहा है...............वाह! बहुत खूब, क्या बात कही है

 

सभ्यता जिस देश की माँ-बाप की पूजा, वहाँ पर

माँ-पिता के नाम पर अब दिन मनाया जा रहा है..............यह सब तो सामयिक फैशन हो गया है| आजकल के बच्चे, माँ-बाप को माता-पिता नही कहेंगे परन्तु पड़ोसियों को अंकल-आंटी जरुर कहेंगे

यथार्थ पर बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीय गिरिराज जी, दिली बधाई स्वीकार करें

 

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