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समय हमें क्या दिखा रहा है।
कहाँ ज़माना ये जा रहा है।
कोई बनाता है घर तो कोई,
बने हुए को ढहा रहा है।
बुझाए लाखों के दीप जिसने,
वो रोशनी में नहा रहा है।
गुलों को माली ही बेदखल कर,
चमन में काँटे उगा रहा है।
कुचलता आया जहाँ उसी को,
जो फूल खुशबू लुटा रहा है।
जो बीज बोकर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।
हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,
सदा ही खाली घड़ा रहा है।
खफा हैं क्यों काफिये बहर से,
गज़ल को ये गम सता रहा है।
ये “कल्पना” रब का न्याय कैसा,
दुखों का ही दिल दुखा रहा है।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
कल्पना जी आपकी गज़ल की एक एक पंक्ति आज के समाज का सही चित्र खींचा है.आपके अनुभव को साधुवाद.
सच्चाई से भरे अशआर! बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!
आपका ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीया कल्पना जी, मेरे कहे को आपने इतना मान दिया यह आपका बड़प्पन है .
सादर!
आदरणीया प्राची जी, आपको गजल पसंद आई, मन को सुकून मिला। मन से धन्यवाद आपका
प्रिय गीतिका, तुम्हारी रचना पर उपस्थिति ही सुखकर प्रतीत होती है, बहुत बहुत धन्यवाद /सप्रेम
आदरणीय अखिलेश जी, प्रोत्साहित करने के लिए सादर धन्यवाद
आदरणीय जितेंद्र जी, आपने समय देकर बारीकी से गजल को पढ़ा इससे बहुत खुशी हुई। आपके बताए शब्द पर अब मेरी भी सहमति बन रही है। लिखते समय यह शब्द भी सोचा था, पर सटीक क्या रहेगा यह तय नहीं कर पाई। आपने सुझाव देकर मेरी उलझन दूर कर दी। आपका मन से आभार।
आदरणीय बैद्यनाथ जी, प्रोत्साहित करती हुई टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद
सभी अशआर बहुत सादगी और सच्चाई से कहे गए हैं ..बहुत पसंद आये
बहुत बहुत बधाई आदरणीया कल्पना जी
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