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ग़ज़ल : तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला

सभी रास्ताें पर सिपाही खटे हैं 

ताे फिर लाेग क्याें रास्ते से हटे हैं । 

सियासत अाै मज़हब की दीवारें देखाे 

दीवाराें से ही लाेग गुमसुम सटे हैं । 

सरहद है सराें के लिए अाखरी हद 

अकारण यहाँ पर कई सर कटे हैं । 

चमकती फिसलती हैं कारें महंगी 

मगर अादमीयत के जूते फटे हैं । 

जिन्हें मुल्क बरबाद करने की जिद थी

वही लाेग सिंहासनाें पर डटे हैं । 

तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला 

मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं । 

(माैलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Krishnasingh Pela on April 23, 2014 at 2:47am
आ. चन्द्र शेखर जी हार्दिक आभार ।
इस मिसरे में वर्णों पर कुछ ज्यादा stress जरूर पडा है । इसे कहते या गुनगुनाते वक्त
"इ सद् पर् , क ई बे, क सूर् सर्, क टे हैं"
अर्थात "१ २ २, १ २ २, १ २ २, १ २ २"
इस तरह मिलाने की कोशिष की थी । सायद ज्यादा तोड मरोड कर दिया लगता है ।
Comment by Krishnasingh Pela on April 23, 2014 at 2:30am
आ. Dr.Prachi Singh जी आपने ग़ज़लको सराहा तो हमें लगा कि यह कोशिष कामयाब रही । बाबह्र करने की कोशिष के बावजुद कसर रह गयी होगी । दोषपूर्ण स्थानों से अवगत करा देते तो सुधार व परिमार्जन करने का अवसर मिल जाता ! सादर ।
Comment by Krishnasingh Pela on April 22, 2014 at 11:48pm
आदरणीय umesh katara जी हार्दिक आभार !
Comment by Krishnasingh Pela on April 22, 2014 at 11:46pm
आदरणीय Sachin Dev जी हौसला आफजाइ के लिए हार्दिक आभार ।
Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 22, 2014 at 9:12am

ग़ज़ल बहुत अच्छी है साद्गी से कही गयी गहरी बातें दिल को छू जाती हैं। 

इस हद पर कई बेकसूर सर कटे हैं । 

 यहाँ थोड़ी बहर की समस्या दिख रही है, कृपया देख लें, । सादर।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 22, 2014 at 9:09am

सभी अश'आर पसंद आये ... बहुत सलीके से कहन को शब्द मिले हैं 

जिन्हें मुल्क बरबाद करने की जिद थी

वही लाेग सिंहासनाें पर डटे हैं । ...................क्या खूब कहा है!

कुछ मिसरे बहर से थोड़ा इधर उधर लगे 

इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

Comment by umesh katara on April 20, 2014 at 8:22am

सुन्दर ग़ज़ल भाई जी वाहह 

Comment by Krishnasingh Pela on April 17, 2014 at 8:58pm

इस  ग़ज़ल  के तीसरे शेर का उला इस प्रकार था : 

"सरहद है सराें के लिए अाँखरी हद" 

अादरणीय  भुवन निस्तेज जी ने मेसेज में जाे सुझाया था उसके पश्चात  मैने इसे संशाेधन कर के निम्नानुसार बनाया है : 

"है सरहद सराें के लिए अाखरी हद" 

रचनात्मक सुझाव के लिए अादरणीय भुवन जी के प्रति हार्दिक अाभार । 

Comment by Krishnasingh Pela on April 16, 2014 at 10:53pm

अादरणीय  जितेन्द्र 'गीत' जी हार्दिक धन्यवाद । अापने इन लफ्जाें काे इतना महत्व दिया । मैं अाभार प्रकट करते हुए काफी अानंदित हाे रहा हूँ ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 15, 2014 at 11:16pm

बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीय कृष्णा जी, हर एक शेर लाजवाब हुआ

तुम्हारे लिए जश्न हाेगा ये मेला 

मुझे बेचने कुछ चने चटपटे हैं । ...........दिली बधाई स्वीकार करें

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