बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ
वज्न : २१२२, २१२२, २१२२, २१२
मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.
हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये आँखों की नदी,
रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
लाजबाब अरुन जी वाहहहहहहहह
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी------वाह
वाहहहहहहहहहह
वाह! बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल! सभी अशआर बहुत ही खूबसूरत हैं!
आपको बहुत-बहुत बधाई, अरुण भाई!
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,.........खूबसूरत ग़ज़ल
बहुत बहुत सुंदर गज़ल......हार्दिक बधाई.
वाह्ह वाह... प्रिय अरुन शर्मा बहुत शानदार गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल कही है|सभी अशआर सुन्दर हुए हैं ---एक परामर्श देना चाहूँगी
ये मिसरा यदि ऐसे लिखें तो ठीक न होगा?? --- आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये आँखों की नदी,-----आँखों और निगाहों में फर्क होता है
बहुत- बहुत दाद कबूलें इस सुन्दर ग़ज़ल पे
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आदरणीय मुकेश भाई जी आपकी उत्साहवर्धक टिपण्णी पाकर मन प्रफुल्लित हो उठा, ग़ज़ल आपको मुकम्मल लगी लेखन कार्य सार्थक हुआ. बहुत बहुत धन्यवाद मित्र
हार्दिक आभार आदरणीया सरिता जी स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
आदरणीय अरुण जी
बहुत उम्दा और मुक़म्मल ग़ज़ल कही है आपने.
उम्दा बयानी का मुज़ाहिरा किया है आपने.
दिल खुश कर दिया आपने.. बहुत बहुत मुबारकबाद
हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,
रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी. .. क्या कहने..
बढ़िया अशआर
दिल की बात दिल तक
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