2122 2122 2122 212
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हर खुशी हमको हुई है अब सवालों की तरह
और दुख आकर मिले हैं नित जवाबों की तरह
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चाँद निकला तो नदी में देख छाया खुश रहे
रोटियाँ अब हम गरीबों को खुआबों की तरह
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यूं कभी जिसमें कहाये यार हम महताब थे
उस गली में आज क्यों खाना खराबों की तरह
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एक भी आदत नहीं ऐसी कि तुझको गुल कहूँ
पास काँटें क्यों रखो फिर तुम गुलाबों की तरह
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है हमें तो जिन्दगी में साँस-धड़कन यार ज्यों
आप को माना मुहब्बत है शराबों की तरह
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कौन क्या, मुश्किल हुई पहचान चाहे धूप हो
आचरण सबको यहाँ अब, है नकाबों की तरह
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किस तरह नंगा किया है, देखिए बाजार ने
डायरी थे, बिक रहे जो अब किताबों की तरह
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मैलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई धर्मेन्द्र कुमार जी, ग़ज़ल अनुमोदित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
एक भी आदत नहीं ऐसी कि तुझको गुल कहूँ
पास काँटें क्यों रखो फिर तुम गुलाबों की तरह.....बहुत सुंदर.
अच्छे अश’आर हुए हैं लक्ष्मण साहब, दाद कुबूलें
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