रोज की है बादलों से छेड़खानी आपने
और गढ़ ली प्यास की कोई कहानी आपने
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चाह रखते हो भगीरथ सब कहें इतिहास में
पर न खुद से एक दरिया भी बहानी आपने
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बात करते गाँव की पर कब उसे तरजीह दी
गाँव को तम दे सजाई राजधानी आपने
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आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद कूआँ कब निकाला यार पानी आपने
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लाख दुख मैं मानता हूँ आपने झेले मगर
झोपड़ी का दुख न झेला राजरानी आपने
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जानता तुम हो ‘मुसाफिर’ पर सफर ऐसा भी क्या
हो कठिन जब दो घड़ी भी रूक बितानी आपने
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बह्र - 2122 2122 2122 212
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लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय भाई जीतेन्द्र जी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भुवन भाई उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद . आपने जिस शी'र में दोष की और इशारा किया और साथ ही क्रिया देखने के लिए कहा है कौन सी क्रिया पर गौर करून बताने का कष्ट करें .
आदरणीय कुंती दी उत्साहवर्धन के लिए तहेदिल से सुक्रिया .
आदरणीय भाई अरुण जी और शिज्जु जी प्रसंशा के लिए आभार साथ ही भुवन जी द्वारा पैदा की गयी शंका के समाधान के लिए हार्दिक बधाई .
आदरणीय भाई श्यामनारायण जी , नीरज जी, धर्मेन्द्र जी और जवाहर जी उत्साहवर्धन के लिए आप सभी का आभार .
वाह बहुत सुन्दर ग़ज़ल..
अच्छे अश’आर हुए हैं लक्ष्मण साहब, दाद कुबूल करें।
वाह भाई क्या कहने बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर बेहद पसंद आये मेरी ओर से दिली दाद हाजिर है कुबूल फरमाएं मैं भी आदरणीय शिज्जू भाई जी की बातों के इत्तेफाक रखता हूँ.
बहुत सुंदर भावपूर्ण गजल, दिली बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण जी
बहुत खूब आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत बहुत बधाई, मैं भुवनजी की बात से इत्तेफाक़ नहीं रखता में और ने हमकाफिया नहीं हो सकते इसलिये यहाँ तकाबुले रदीफ़ नहीं होगा
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