रोज की है बादलों से छेड़खानी आपने
और गढ़ ली प्यास की कोई कहानी आपने
***
चाह रखते हो भगीरथ सब कहें इतिहास में
पर न खुद से एक दरिया भी बहानी आपने
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बात करते गाँव की पर कब उसे तरजीह दी
गाँव को तम दे सजाई राजधानी आपने
***
आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद कूआँ कब निकाला यार पानी आपने
***
लाख दुख मैं मानता हूँ आपने झेले मगर
झोपड़ी का दुख न झेला राजरानी आपने
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जानता तुम हो ‘मुसाफिर’ पर सफर ऐसा भी क्या
हो कठिन जब दो घड़ी भी रूक बितानी आपने
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बह्र - 2122 2122 2122 212
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लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
रोज की है बादलों से छेड़खानी आपने
और गढ़ ली प्यास की कोई कहानी आपने
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चाह रखते हो भगीरथ सब कहें इतिहास में
पर न खुद से एक दरिया भी बहानी आपने
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बात करते गाँव की पर कब उसे तरजीह दी
गाँव को तम दे सजाई राजधानी आपने......सच ही तो है....इस सार्थक रचना के हार्दिक बधाई धामी जी.
बात करते गाँव की पर कब उसे तरजीह दी
गाँव को तम दे सजाई राजधानी आपने
आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद कूआँ कब निकाला यार पानी आपने
लाख दुख मैं मानता हूँ आपने झेले मगर
झोपड़ी का दुख न झेला राजरानी आपने
जानता तुम हो ‘मुसाफिर’ पर सफर ऐसा भी क्या
हो कठिन जब दो घड़ी भी रूक बितानी आपने
क्या खूब आदरणीय, बधाई हो...
हाँ एक बात पराप्का धुआं आकृष्ट कराना चाहूँगा
चाह रखते हो भगीरथ सब कहें इतिहास में
पर न खुद से एक दरिया भी बहानी आपने
इस खूबसूरत शेर में ऐब-ए-तकबुले ज़ुज्बे रादिफैन है जैसा प्रतीत हो रहा है, क्रिया देख ले.
सादर...
सच्ची सच्ची बात ही बखानी आपने ...बहुत ही मार्मिक !
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई। |
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