मौत बेटियों को बस, दाइयाँ समझती हैं
पीर के सबब को सब माइयाँ समझती हैं
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सोच आज तक भी जब, है गुलाम जैसी ही
मुल्क की अजादी क्या, बेडि़याँ समझती हैं
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दो बयाँ भले ही तुम देश की तरक्की के
हर खबर है सच कितनी सुर्खियाँ समझती हैं
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आप के बयानों में खूब है सफाई पर
बेवफा कहाँ तक हो, पत्नियाँ समझती हैं
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दोष तुम निगाहों को बेरूखी की देते हो
कान कौन भरता है बालियाँ समझती हैं
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पायलों को छमछम की आदतें जनम से ही
कब किसे रिझाना है चूडि़याँ समझती हैं
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जिश्म को बिछाया है लाल के बिलखने से
दर्द भूख का यारो रोटियाँ समझती हैं
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क्या कहें ‘मुसाफिर’ को चुप रहा सफर में गर
मौन क्यों जुबाँ है ये तल्खियाँ समझती हैं
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212 1222 212 1222
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
मौलिक और अप्रकाशित
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