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तुम और मैं कितनी सदियों से
हाँ, कितने जन्मों से,
कितने चेहरे और रूप लिये
कभी भूले से, कभी अंजाने से.

एक युग में कभी तृण बन के
अमृत जल से बरसे कहीं,
नभ में तारे बन के चमके कभी
कितनी कहानियाँ सुनी अनसुनी रहीं.

किसका सफ़र था जो हवा बन के
गुज़र रहा था पात पात
एक गुलाब खिला था वन में
कुछ महक थी बसी मकरंद में.

एक एहसास था मन के कोने में
वह ढूँढ़ रहा था एक ठाँव,
कितने बसेरे मिले थे पहचाने से
पर तुम बिन था कहाँ ठहराव.

हमारे पथ दिखते थे समतल
पर हम चलते अलग-थलग थे,
उत्तर-दक्षिण के विपुल आकर्षण में
अदृश्य डोर से बंधे हुए थे.

कवियों की कही सबने मानी
एक सच्चाई थी थोड़ी सी,
समझा कौन, किसने समझाया
लम्बी कहानी बस इतनी सी.


(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 8, 2014 at 9:23pm

नैसर्गिक सत्ता इकाइयों के अनुरूप चलती हुई भी सार्वभौमिक स्वरूप को जीती है. जड़-चेतन से रुपायित मानवीय व्यवहार संवेदना के स्तर पर कितना सर्वसमाही हुआ करता है !
आपकी कविता अपने बिम्बों के माध्यम से शाश्वत समृद्धियों को संजोती है. और प्रेम का कोमल स्वरूप दृढ़वत उत्साह के साथ साझा होता है.

समझा कौन, किसने समझाया
लम्बी कहानी बस इतनी सी.
वाह . क्या कहा है आपने !
आपकी प्रस्तुत कविता की दशा को हर जीनेवाला जीता है. और ऊर्जस्वी होता जाता है. आपकी अभिव्यक्ति का समर्थन सभी प्रेमियों को मिले.
   
हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीया.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 4, 2014 at 12:55pm

आदरणीया कुंती जी ..अध्य्त्मिकता का पु ट  लिए हुए इस शसक्त और गंभीर रचना के लिए आपको तहे दिल बधाई सादर 

Comment by annapurna bajpai on June 4, 2014 at 7:46am

बहुत ही बढ़िया रचना !! आ0 कुंती दीदी बधाई स्वीकारिए । 

Comment by Meena Pathak on June 3, 2014 at 10:06pm

कवियों की कही सबने मानी
एक सच्चाई थी थोड़ी सी,
समझा कौन, किसने समझाया
लम्बी कहानी बस इतनी सी............................बहुत सुन्दर .. नमन आप को दी | सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 2, 2014 at 4:37pm

बहुत खूबसूरत कमाल की रचना है बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by Arun Sri on June 2, 2014 at 11:59am

कुछ कहानियां कभी खत्म नही होतीं ! अच्छा भी है कि जीवन हमेशा कहानियों सा सरल और प्रवाह मय बना रहे ! :-)))))))

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 1, 2014 at 11:59pm

एक एहसास था मन के कोने में
वह ढूँढ़ रहा था एक ठाँव,
कितने बसेरे मिले थे पहचाने से
पर तुम बिन था कहाँ ठहराव..........................सुंदर,मन को छू जाते हुए भाव. हार्दिक बधाई आदरणीया कुंती जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 1, 2014 at 10:46pm

किसका सफ़र था जो हवा बन के
गुज़र रहा था पात पात 
एक गुलाब खिला था वन में
कुछ महक थी बसी मकरंद में.

एक एहसास था मन के कोने में
वह ढूँढ़ रहा था एक ठाँव,
कितने बसेरे मिले थे पहचाने से
पर तुम बिन था कहाँ ठहराव.---वाह वाह बहुत सुन्दर प्रभाव शाली पंक्तिया ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...हार्दिक बधाई आपको आ० कुंती जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2014 at 12:38pm

तुम और मै के जन्म जन्मान्तर सम्बन्ध के प्रति निश्चित आश्वस्ति  और भरोसे को इस  कामना  के  साथ प्रणाम  कि यही सच हो iआदरणीया  i  

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