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वो नदी जो गिरि

कन्दराओं से निकल

पत्थरों के बीच से

बनाती राह

 

कितनो की मैल धोते

कितने शव आँचल मे लपेटे

अन्दर कोलाहल समेटे

अपने पथ पर,

 

कोई पत्थर मार

सीना चीर देता 

कोई भारी चप्पुओं से

छाती पर करता प्रहार

लगातार,

 

सब सहती हुई

राह दिखाती राही को

तृप्त करती तृषा सब की

अग्रसर रहती अनवरत

तब तक, जब तक खो न दे

आस्तित्व,अपने 

प्रियतम से मिल कर ||

मीना पाठक 
मैलिक अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Meena Pathak on June 5, 2014 at 10:11pm

रचना सराहने हेतु आभार आभार आदरणीय नरेंद्र सिंह जी | सादर 

Comment by वेदिका on June 5, 2014 at 4:52pm
आह! बेहद खूबसूरत कविता!
बेहद भावभीनी और मासूम रचना पर हार्दिक बधाई आ0 मीना दीदी!
Comment by Meena Pathak on June 5, 2014 at 2:43pm

आदरणीय गोपाल नारायण जी आप सब वरिष्ठों से अभी सीख ही रहीं हूँ | अभी और कहीं पोस्ट नही की हूँ इस कविता को , कहीं और पोस्ट करते समय आप की बात का ध्यान रखूँगीं |

हृदय से आभार स्वीकारें मार्गदर्शन और सराहना हेतु | सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 5, 2014 at 12:04pm

मीना जी

बहुत सुन्दर कविता है और यह वही पूर्ण हो जाती है  जब आप कहती है -जब तक खो न दे अस्तित्व i आगे की बात  पाठक की कल्पना पर छोड़ देती तो और मजा आ जाता  i   इस्मे जीवन का जो रूपक है  वह आकर्षित करता है i  सादर i

Comment by Meena Pathak on June 5, 2014 at 10:27am

प्रिय जितेन्द्र बहुत बहुत आभार | सस्नेह 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 5, 2014 at 12:07am

सब सहती हुई

राह दिखाती राही को

तृप्त करती तृषा सब की

अग्रसर रहती अनवरत

तब तक, जब तक खो न दे

आस्तित्व,अपने 

प्रियतम से मिल कर.............बहुत सुन्दरता से समर्पण को बयां करती पंक्तियाँ, हार्दिक बधाई आपको आदरणीया मीना दीदी

Comment by Meena Pathak on June 4, 2014 at 9:49pm

आदरणीया कुन्ती दी...आप की टिप्पणी रुपी स्नेह की प्रतीक्षा रहती है मुझे .. पा के धन्य हो जाती हूँ मै और मेरी रचना दोनों ...हृदय से आभार स्वीकारें | सादर 

Comment by Meena Pathak on June 4, 2014 at 9:46pm

आदरणीय सुशील जी बहुत बहुत आभार स्वीकारें | सादर 

Comment by Meena Pathak on June 4, 2014 at 9:43pm

सस्नेह आभार अन्नपूर्णा  जी 

Comment by coontee mukerji on June 4, 2014 at 6:01pm

 

सब सहती हुई

राह दिखाती राही को

तृप्त करती तृषा सब की

अग्रसर रहती अनवरत

तब तक, जब तक खो न दे

आस्तित्व,अपने 

प्रियतम से मिल कर ||....बहुत सुंदर. आपकी रचना दिल को छू देने वाली होती है...हार्दिक बधाई.

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