वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह
कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,
कोई पत्थर मार
सीना चीर देता
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न दे
आस्तित्व,अपने
प्रियतम से मिल कर ||
मीना पाठक
मैलिक अप्रकाशित
Comment
रचना सराहने हेतु आभार आभार आदरणीय नरेंद्र सिंह जी | सादर
आदरणीय गोपाल नारायण जी आप सब वरिष्ठों से अभी सीख ही रहीं हूँ | अभी और कहीं पोस्ट नही की हूँ इस कविता को , कहीं और पोस्ट करते समय आप की बात का ध्यान रखूँगीं |
हृदय से आभार स्वीकारें मार्गदर्शन और सराहना हेतु | सादर
मीना जी
बहुत सुन्दर कविता है और यह वही पूर्ण हो जाती है जब आप कहती है -जब तक खो न दे अस्तित्व i आगे की बात पाठक की कल्पना पर छोड़ देती तो और मजा आ जाता i इस्मे जीवन का जो रूपक है वह आकर्षित करता है i सादर i
प्रिय जितेन्द्र बहुत बहुत आभार | सस्नेह
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न दे
आस्तित्व,अपने
प्रियतम से मिल कर.............बहुत सुन्दरता से समर्पण को बयां करती पंक्तियाँ, हार्दिक बधाई आपको आदरणीया मीना दीदी
आदरणीया कुन्ती दी...आप की टिप्पणी रुपी स्नेह की प्रतीक्षा रहती है मुझे .. पा के धन्य हो जाती हूँ मै और मेरी रचना दोनों ...हृदय से आभार स्वीकारें | सादर
आदरणीय सुशील जी बहुत बहुत आभार स्वीकारें | सादर
सस्नेह आभार अन्नपूर्णा जी
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न दे
आस्तित्व,अपने
प्रियतम से मिल कर ||....बहुत सुंदर. आपकी रचना दिल को छू देने वाली होती है...हार्दिक बधाई.
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