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तन से जादा मन जरूरी प्यार को
मन बिना आये हो क्या व्यापार को
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मुक्ति का पहला कदम है यार ये
मोह माया मत समझ संसार को
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इसमें शामिल और जिम्मेदारियाँ
मत समझ मनमर्जियाँ अधिकार को
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डूब कर तम में गहनतम भोर तक
तेज करता रौशनी की धार को
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तब कहीं जाकर उजाला साँझ तक
बाँटता है सूर्य इस संसार को
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देह भी तो है ‘मुसाफिर’ नाव ही
रख सदा मजबूत मन पतवार को
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रचना 15 दिसम्बर 2013
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
देह भी तो है ‘मुसाफिर’ नाव ही
रख सदा मजबूत मन पतवार को.... बहुत ही सुंदर दार्शनिक भाव लिए ग़ज़ल के हर शेर है .. बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको सादर
आदरणीय जीतेन्द्र भाई , आपको ग़ज़ल पसंद आई लेखन सार्थक हुआ , प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
इसमें शामिल और जिम्मेदारियाँ
मत समझ मनमर्जियाँ अधिकार को.............बहुत सही नसीहत
बहुत सुंदर गजल आदरणीय लक्ष्मण जी, हर एक शेर एक महत्वपूर्ण सन्देश देता हुआ. हार्दिक बधाई आपको
आदरणीय अनुपमा बहन ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए आभार .
आदरणीय भाई गिरिराज जी , गजल में आपको कुछ नयापन लगा इसके लिए आप सब के स्नेह और शुभकामनाओं का आभारी हूँ , आप सब का निरंतर मिलता स्नेह और मार्गदर्शन ही निरंतर कुछ नया सोचने पो प्रेरित करता है . आप सब का इसीप्रकार स्नेहाशीष मिलता रहे यही कामना है l
आदरणीय भाई नरेंद्र जी , गजल की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद l
वाह !! बहुत खूब , सुंदर गजल हेतु बधाई ।
आदरनीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल मे आपने एक नई सोच दी है , बहुत सुन्दर , बहुत बधाइयाँ ॥
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आप जैसे वरिष्ठ रचनाकारों से सराहना मिलना सौभाग्य की बात है , आप सभी के आशीष से ही कुछ नया सोचने और लिखने की प्रेरणा मिलती है . आपका स्नेह मिलता रहे यही कामना है .
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