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हुआ जाता नहीं बच्चा कभी यारो मचलने से
नहीं सूरत बदलती है कभी दरपन बदलने से
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जला ले खुद को दीपक सा उजाला हो ही जायेगा
मना करने लगे तुझको अगर सूरज निकलने से
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हमारी सादगी है ये भरोसा फिर जो करते हैं
कभी तो बाज आजा तू सियासत हमको छलने से
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बता बदनाम करता क्यों पतित है बोल अब मुझको
न रोका जब कभी तूने यहाँ मुझको फिसलने से
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पता है तू भुजंगों में तेरी फितरत विषैली है
मैं चंदन हूँ न बदलूंगा जहर तेरे उगलने से
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मुझे तो घोर तम देता, नहीं तुझ सी समझ मेरी
उजाला तुझको लगता हो भले ही घर के जलने से
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महज पाना किसी को भी मुहब्बत तो नहीं होती
समझ मत हमसफर मुझको ‘मुसाफिर’ साथ चलने से
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रचना- 13 दिसम्बर 2005
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रचना मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० कल्पना दी , ग़ज़ल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद
सुंदर गजल के लिए आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय लक्ष्मण जी
आदरणीय भाई विजय जी , आपको ग़ज़ल अच्छी लगी यह मेरे लिए अतिरिक्त पारिश्रमिक है आपका आशीष ही निरंतर बेहतर लिखने का प्रयास को प्रेरित करता है . इसके लिए हार्दिक आभार .
आदरणीय भाई गिरिराज जी ग़ज़ल को इतना सम्मान देने के लिए आभार , आप सभी का स्नेह इसी प्रकार मिलता रहे यही आमना है .
इस अच्छी गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय लक्ष्मण जी।
आदरणीया लक्ष्मण भाई , लाजवाब गज़ल के लिये आपको दिली बधाइयाँ ॥
पता है तू भुजंगों में तेरी फितरत विषैली है
मैं चंदन हूँ न बदलूंगा जहर तेरे उगलने से , -------- वाह वा , क्या बात है भाई जी , बधाई ॥
आ० भाई रमेश कुमार जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .
इस सुंदर गजल के लिये बधाई
आदरणीया राजेश बहन आपसे प्रशंसा पाकर दिली प्रशन्नता मिली . लेखन सफल हुआ . हार्दिक धन्यवाद .
आदरणीय भाई विजय शंकर जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार . आपका स्नेह व आशीष आजीवन मिलता रहे यही कामना है .धन्यवाद .
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