चाहतों ने गुलज़मीं पे चाँदनी जब छा दिया
आहटों ने बढ़ तराना प्यार का तब गा दिया |
हाथ क़ैदी की तरह सहमे हुए थे क़ैद में
क़ैदख़ाने में किसी ने दिल थमा बहका दिया |
पाँव में थीं बेड़ियाँ, बेदम नज़र, मंजिल न थी
हौसले ने वक़्त पे सिर से कफ़न फहरा दिया |
होंठ काँटों के हवाले खूँ से लथपथ थे पड़े
फूल की ख़ुशबू ने टाँके खींचकर महका दिया |
मातमी अंदाज़ में लोगों का जमघट था लगा
साथ जीने की सज़ा ने मौत को झुठला दिया |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
--- संतलाल करुण
Comment
आदरणीया मीना जी,
आप के प्रशंसात्मक उद्गार के प्रति सादर आभार !
आदरणीय गिरिराज जी ,
जो आप लोगों से सीखता हो, वह आप को क्या सिखाएगा | रचना की प्रशंसा के लिए सहृदय आभार !
आदरणीया महिमा जी,
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार !
बहुत ही सुंदर भाव ... हार्दिक बधाई आपको सादर
आदरणीय संत लाल भाई , खूब सूरत गज़ल कही है आपकोअ बधाई ॥ मेरे खयाल से आपके 2122 2122 2122 212 बह्र मे गज़ल कही है , आदरणीय बह्र ऊपर लिख देने से हम सीखने वालों को समझने मे आसानी होती है अतः आपसे अनुरोध है कि बह्र ज़रूर दे दिया कीजिये । सादर !
बहुत सुन्दर गज़ल .. बधाई | सादर
सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई आ० संतलाल जी!
क्या यह गज़ल है?
सादर
बहुत सुंदर गज़ल....हार्दिक बधाई.
sundar
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