एक ताज़ा नवगीत -----जगदीश पंकज
मैं स्वयं निःशब्द हूँ,
निर्वाक् हूँ
भौंचक्क ,विस्मित
क्यों असंगत हूँ
सभी के साथ में
चलते हुए भी
खुरदरापन ही भरा
जब जिंदगी की
हर सतह पर
फिर कहाँ से खोज
चेहरे पर सजे
लालित्य मेरे
जब अभावों के
तनावों के मिलें
अनगिन थपेड़े
तब किसी अवसाद
के ही चिन्ह
चिपकें नित्य मेरे
मुस्कराते फूल
हंसती ओस
किरणों की चमक से
हैं मुझे प्रिय
किन्तु, हैं अनुताप में
जलते हुए भी
बदलते जब मूल्य
जीवन के,
विवादित आस्थाएं
तब समायोजित करूँ
मैं किस तरह से
इस क्षरण में
देख कर अनदेख
सुनकर अनसुना
क्यों कर रहे हैं
वे ,जिन्हें सच
व्यक्त करना है
समय के व्याकरण में
भव्य पीठासीन,मंचित
जो विमर्शों में
निरापद उक्तियों से
मैं उन्हें कैसे
कहूँ अपना
सतत गलते हुए भी
मैं उठाकर तर्जनी
अपनी, बताना चाहता
संदिग्ध आहट
किस दिशा,किस ओर
खतरा है कहाँ
अपने सगों से
जो हमारे साथ
हम बनकर खड़े
चेहरा बदल कर
और अवसरवाद के
बहरूपियों से ,गिरगिटों से,
या ठगों से
मैं बनाना चाहता हूँ
तीर, शब्दों को
तपाकर
लक्ष्य भेदन के लिए
फौलाद में
ढलते हुए भी
----जगदीश पंकज
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रचना मौलिक ,अप्रकाशित ,अप्रसारित
----जगदीश पंकज
Comment
आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए ह्रदय से आभार ,भाई Sushil Sarna जी !
आंतरिक मनोभावों, अंतर्द्वंदों की शानदार प्रस्तुति . अंर्तमन को छूती इस सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सर
आपने मेरे इस गीत पर अभिमत प्रकट करके मान दिया है ,उसके लिए हृदयतल की गहराई से बहुत -बहुत धन्यवाद!
आदरणीय कल्पना जी !
बहुत सुंदर उच्चकोटि के नवगीत के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय
भाई सौरभ जी ,गीत पर आपके आत्मीय अभिमत तथा सुझाव के लिए ह्रदय से आभार।शीघ्र ही इस गीत के कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए शब्दों पर और विचार कर रहा हूँ।
आदरणीय जगदीश भाईजी, अति प्रखर इस नवगीत के लिए हार्दिक बधाइयाँ.
इस नवगीत के कथ्य और शिल्प दोनों न केवल कसे हुए है, बल्कि अभिव्यक्ति पाठक को आंदोलित भी करती है. बार-बार पढ़ने को दिल चाहता है.
भाव संप्रेषण के आत्मीय संयोजन पर हृदय की गहराइयों से शुभकामनाएँ.
बदलते जब मूल्य
जीवन के,
विवादित आस्थाएं ... . . सादर निवेदन है कि प्रस्तुत पंक्तियों को
जब बदलते मूल्य
जीवन के,
विवादित आस्थाएं ... . . किये जाने से वाचन-प्रवाह सरस सहज बना रहेगा.
इस उन्नत प्रस्तुति को साझा करने के लिए सादर आभार आदरणीय
आपकी आत्मीय टिप्पणी के लिए धन्यवाद बृजेश नीरज जी -जगदीश पंकज
वाह! बहुत ही सुन्दर नवगीत! आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीय डा. प्राची सिंह जी ,आपने मेरे इस गीत पर जिस गहनता से विस्तृत अभिमत प्रकट करके मान दिया है ,उसके लिए हृदयतल की गहराई से कृतज्ञ हूँ। आभारी हूँ आपकी आत्मीय टिप्पणी के लिए। पुनः धन्यवाद -जगदीश पंकज
आदरणीय जगदीश पंकज जी
पस्तुत नवगीत का प्रत्येक बंद पंक्ति दर पंक्ति शब्द दर शब्द जिस अन्तः चीत्कार को स्वर देने को आकुल है उसने बहुत गहरे छुआ
मैं स्वयं निःशब्द हूँ,
निर्वाक् हूँ
भौंचक्क ,विस्मित
क्यों असंगत हूँ
सभी के साथ में
चलते हुए भी..............पूर्णतः सही होते हुए भी कई बार हम ही असंगत ठहरा दिए जाते हैं या आभासित होते हैं..तो कारण और प्रतिआचरण कैसे हो कुछ समझ नहीं आता
देख कर अनदेख
सुनकर अनसुना
क्यों कर रहे हैं
वे ,जिन्हें सच
व्यक्त करना है
समय के व्याकरण में.............कितना कष्टकर है देखना किसी को ज़िम्मेदारी के विरुद्ध जाते हुए...जानते बूझते
मैं उन्हें कैसे
कहूँ अपना
सतत गलते हुए भी........ऐसे अपनों को फिर मन अपना स्वीकार करे भी तो कैसे ?
मैं उठाकर तर्जनी
अपनी, बताना चाहता
संदिग्ध आहट
किस दिशा,किस ओर
खतरा है कहाँ ...........................बहुत सही... यही होना भी चाहिए..पर अंगारों पर चलने जैसा है
मैं बनाना चाहता हूँ
तीर, शब्दों को
तपाकर
लक्ष्य भेदन के लिए
फौलाद में
ढलते हुए भी...................बहुत खूबसूरत ...ऐसा हौसला हो तो सत्य कभी हार नहीं सकता और छद्म आचरण बेनकाब होता ही है
इस सुन्दर सार्थक प्रस्तुति के लिए मेरी हृदयतल से बारम्बार बधाई
सादर.
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