मैं बहुत जीता हूँ, …….
जीता हूँ ….
और बहुत जीता हूँ …..
ज़िन्दगी के हर मुखौटे को जीता हूँ //
हर पल …..
इक आसमाँ को जीता हूँ ……
हर पल …….
इक जमीं को जीता हूँ //
मैं ज़मीन -आसमाँ ही नहीं …..
अपने क्षण भंगुर …..
वजूद को भी जीता हूँ //
कभी हंसी को जीता हूँ ….
तो कभी ग़मों के जीता हूँ …..
जिंदा हूँ जब तक …..
मैं हर शै को जीता हूँ //
मगर घृणा होती है इस जीने से …..
जब कहीं कोई नारी …..
वासना भरी दरिंदगी की शिकार होती है //
जब कहीं कोई नारी भ्रूण ….
ममत्व से तिरिस्कृत हो …..
किसी कचरे के ढेर ……
मंदिर की सीढ़ी,……
या बाल आश्रम में …..
नियति के भरोसे छोड़ दिया जाता है //
जब कहीं कोई वृद्ध …..
अपनों की उपेक्षा का ……
शिकार होता है //
जब सड़क पर आहत ……
कोई रक्त रंजित व्यक्ति …..
किसी सहारे के लिए …..
तड़पते तडपते शांत हो जाता है //
हाँ तब भी मैं जीता हूँ ….
मगर एक घृणा के साथ //
घृणा ,इंसान में मरती इंसानियत को देखकर …..
जीवन मूल्यों का क्षरण होते देख कर …
संस्कारों अवमूल्यन देखकर ….
संवेदनाओं का मरण देखकर //
हाँ सच कहता हूँ …..
इतना सब होने के बावजूद भी …..
मैं जीता हूँ //
मैं अपने असहाय वजूद की मौत को ….
हर पल जीता हूँ ….
हाँ !मैं बहुत जीता हूँ //
हंसी के खोल में …..
ज़िन्दगी के दर्द को जीता हूँ //
सच !
मैं बहुत जीता हूँ //
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी रचना पर आपकी आत्मीय मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीया कुंती मुखर्जी रचना पर आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीय विजय प्रकाश शर्मा जी रचना के मर्म को पहचान उस पर आपकी प्रशंसात्मक अभिव्यक्ति ने रचना का जो मान बढ़ाया है उसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया
आदरणीया राजेश कुमारी जी रचना की रूह को पहचान उस पर आपकी आत्मीय प्रशंसा ने मेरे प्रयास को सफल कर दिया .... आपका हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी आत्मीय टिप्पणी मुझे सदैव नए सृजन के लिए ऊर्जा देती है .... इस स्नेह के लिए आपका हार्दिक आभार
मर्मस्पर्शी रचना.....हार्दिक बधाई.
"संवेदनाओं का मरण देखकर" तो आज पूरी दुनियाँ शर्मसार हो रही है. संवेदना ने जीवन उर्जा का उत्सर्जन ही बंद कर दिया है. बहुत संजीदगी से आपने समसामयिक कुरूतियो पर चोट की है.बधाइ स्वीकारें आ० सुशील जी.
आपकी रचना ने दर्द के बहु आयामों को छुआ है यूँ समझिये जिन्दगी हर कदम पर इंसान का इम्तहान लेती है इन्तहा तो तब होती है कि जब हम दुनिया के वीभत्स चेहरे को देखते हैं और कुछ कर नहीं पाते सिर्फ हमारी आत्मा कचोटती रहती है और उसी अवस्था में एक मुखौटा लगा कर जीना पड़ता है या कहें जिंदगी को झेलना पड़ता है ,उसी दर्द में छटपटाते आपकी रचना के हर शब्द मैं महसूस कर रही हूँ ,आपको हार्दिक बधाई आ० सुशील सरना जी
कमाल है सरना जी
मै अपने असहाय वजूद की मौत को हर पल जीता हूँ
हंसी के खोल में जिन्दगी के दर्द को जीता हूँ आपने speechless कर दिया i
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