(मौलिक व अप्रकाशित)
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आदरणीय गणेश भाई,
बहुत दिनों बाद आपकी कोई लघुकथा पढ़ने को मिली। तृप्त हो गया। बहुत ही उम्दा लघुकथा कही आपने।
लघुकथा की शिल्पकारी पर आप जैसी पकड़ बहुत कम देखने को मिलती है। हमारे प्रतिदिन के जीवन
में कुछ बातें, घटनाएं और व्यवहार ऐसे हो जाते है जो हमें कुछ सोचने/करने के लिए मजबूर कर जाते है।
यह घटना, बात या व्यवहार ऐसे अल्प समय में और कई बार तो पलक झपकते ही हो जाते हैं कि साधारण
व्यक्ति इसे समझ नहीं पाता परन्तु संवेदनशील और सूक्षम भावों से युक्त व्यक्ति पर इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है।
इन कुछ क्षणों की कलात्मक पेशकश ही सही मायने में लघुकथा है। आपकी लघुकथाओं की विशेषता यह होती है
कि आप इनमें घटना, बात या व्यवहार का वर्णन नहीं अपितु विशलेषण पेश करते हैं और यही आपकी लघुकथाओं
को सफल व विलक्षण बनाते है। प्रस्तुत लघुकथा के लिए हृदय तल से शुभकामनाएं। लिखते रहा करें.... आपकी
लघुकथाओं का इन्जार रहता है। धन्यवाद।
एक ऐसी पारिवारिक बातचीत जो अक्सर घरों में इसी ढंग से होती है. और पारिवारिक सदस्यों का सामाजिक व्यवहार चलता है. यह कथा ऐसी तिक्त गोली को साझा कर रही है जिसे चाहे-अनचाहे कस्बाई ही नहीं बड़े शहरों में भी परिवार के बड़ों द्वारा निगला जाना एक विवशता हो गयी है.
गणेश भाई, इसे लघुकथा का विन्यास देने के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.
बहुत उम्दा लघुकथा , बधाई..
आदरणीया सविता मिश्रा जी, सराहना हेतु कॉटिश: आभार .
आदरणीया प्रियंका जी, उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु आभार व्यक्त करता हूँ .
आदरणीया गितिका जी, आपकी पाठक धार्मिता को नमन, आपकी टिप्पणी लघुकथा को सार्थक करती है, बहुत बहुत आभार .
सराहना हेतु हृदय से आभार आदरणीय विजय निकोर जी .
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, आपकी टिप्पणी पुरस्कार सदृश है, आपकी समीक्षात्मक टिप्पणी उत्साहवर्धन करती है और लेखन के प्रायोजन को सार्थक करती है, बहुत बहुत आभार .
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सराहना हेतु कोटि कोटि आभार, स्नेह बनाए रखें .
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