स्वप्न
पावस-अमावस में, निविड़ में बीहड़ में
साहस की मूर्ति बनी कृष्ण अभिसारिका I
नीर नेत्र-नीरज में धर्म वृत्ति धीरज में
श्रृद्धा भक्ति भाव भरी आयी सुकुमारिका I
देखा प्रिय पंथ में खड़े है अड़े भासमान
धाय गिरी अंक मे अधीर हुयी चारिका I
चौंकि उठी उसी क्षण स्वप्न सुख भंग हुआ
हाय ! कहाँ कान्ह वे तो जाय बसे द्वारिका I
मुक्ति-चतुष्टय
(भारतीय दर्शन में चार प्रकार की मुक्ति मानी गयी है -
सामीप्य, सारूप्य, सालोक्य, सायुज्य )
वैभव समाज छोड़, लोक रीति लाज छोड़
चली काम-काज छोड़ अभिसार करने I
कुञ्ज की उजाली देख प्रीतम प्रभाली देख
लगी रोष -लाली देख मनुहार करने I
प्रेयसि का चन्द्र -मुख, प्रिय का सनेह सुख
क्या ही रस वाद लगा झार-झार झरने I
स्वामि ने स्वरुप दिया लोक अपरूप दिया
सुखद सामीप्य दिया, सामरस्य सरने I
[अप्रकाशित एवं मौलिक ]
Comment
आदरणीय सौरभ जी
आप का सादर आभार i आप मेरी बात को अन्यथा मत ले i मै आपकी विद्वता का सदैव सम्मान करता हूँ और करता रहूँगा i सादर i
आदरणीय गोपालनारायनजी, रचना आपकी, रचनाकर्म आपका. स्वागत है.
आगे, हमसभी द्वारा जागरुक रचनाधर्मियों के तौर पर ही इस मंच की रचनाओं पर रचना-व्यवहार की सारी बातें करते हैं. मैंने अपनी टिप्पणी में कारण और समाधान के साथ अपनी बातें कह दी हैं.
शाब्दिक ’कलों’, जिसे शब्द-संयोजन के तौर उद्धृत करता हूँ, पर भारतीय छन्द विधान समूह में एक आलेख है. ’कलों’ के संयोजन से ही छन्द या कविताओं के पदों या पंक्तियों के वर्ण या उनकी मात्रिकताएँ सधती हैं.
घनाक्षरियों के पदों के लिए वर्ण संख्या के अलावे चूँकि छन्द शास्त्र में कोई व्यवस्था नहीं दी गयी है. अतः इन्हें शास्त्र के अनुसार ’मुक्तक’ भी कहते हैं. इन मुक्तकों के लिए ’कलों’ का सुचारु संयोजन इन अर्थों में बहुत महत्त्वपूर्ण है. वैसे, आप ये तथ्य तो जानते ही हैं.
आगे, सर्वविदित ही है आदरणीय, इस मंच पर कवि-स्वातंत्र्य को सम्मान देते हुए हर किसी का अनुमोदित रचनाकर्म हर रूप में सदा स्वीकार्य है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
आपका स्वागत है i मेरी अल्प मति में शब्द- विपर्यय तब तक अनुपयुक्त नहीं होते जब तक उनसे वर्ण या मात्राये प्रभावित नहीं होती i कुछ तो कवि स्वातत्र्य होना ही चाहिए i आपका धन्यवाद i सादर i
आदरणीय गोपाल नारायनजी,
आपने मेरे कहे को मान दिया मैं आपका सादर आभार मानता हूँ.
आदरणीय, आप वरिष्ठ हैं, आप विद्वान हैं. अतः कई बातें कहने के पूर्व कई बार स्वयं को तौलना होता है. तथापि आपने इतना अधिकार दिया है तो इस शब्द के प्रति भी ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जिसका आपने पहली घनाक्षरी में प्रयोग किया है - श्रृद्धा.
इसे तो श्रद्धा ही कहा जा सकता है. किन्तु श्र में ऋ की मात्रा अधिक लग गयी है. मुझे भी भान है, आदरणीय कि यह टंकण त्रुटि ही है और कुछ नहीं. किन्तु इसे बने रहना भ्रम ही पैदा कर रहा है न ? देखिये न, ऐसी ही त्रुटियों को नज़रन्दाज करते-करते हम हृदय जैसे शब्द को ह्रदय की तरह लिखने लगे हैं.
खैर,
आपकी अब पहली घनाक्षरी के अंतिम दो पदों के प्रवाह या शाब्दिक ’कलों’ को देखें.
मैं ८-८-८-७ के विन्यास पर जोर नहीं दे रहा, बल्कि १६-१५ की मान्यता के आधार पर ही देख रहा हूँ, जिसका आपने उपयोग किया है.
आपकी अनुमति के अनुसार मैंने जो अकिंचन प्रयास किया है, उसके अनुरूप पद यों बनेंगे -
देखा प्रिय पंथ में हैं अड़े-खड़े भासमान
धाय गिरी अंक मे अधीर हुयी चारिका I
चौंक उठी उसी क्षण.. स्वप्न-सुख हुआ भंग
हाय, कहाँ कान्ह.. वे तो.. जाय बसे द्वारिका I
सादर
आदरणीय सौरभ जी
आपने सही दिशा दिखाई श्रीमन i मैंने सुधार भी किया है i सादर i
आदरणीय गोपाल नारायनजी,
आपकी घनाक्षरियों की भावदशा और तथ्य प्रस्तुति ने मन मोह लिया. दोनों घनाक्षरियाँ अपने-अपने विषयों से मन को झंकृत कर गयीं. ढेर सारी बधाइयाँ स्वीकारें आदरणीय.
वैसे आप थोड़ा और समय दिये होते तो कथ्य का प्रवाह और सधा हुआ होता. शिल्प की बात है ये. तथा, आप समय दें और अधिकार दें तो चर्चा लायक विन्दु हैं ये.
अलबत्ता, दूसरी घनाक्षरी अंतिम दो चरण पुनः देख लीजियेगा. ८-७ के विन्यास पर वर्ण नहीं हैं.
सादर
आशुतोष जी
आपकी कृपा का आभारी हूँ i
मित्रवर भंडारी जी
आपका बहुत बहुत आभार i
आदरणीय गोपाल सर मन भावन रचना ..कविसम्मेलन के मंचो पर पढी जाने वाली रचनाओं की याद आ गयी ..तमाम नए शब्द सीखने को मिले ..दोनों ही रचनाएँ मन को छू लेने वाली हैं ..इन रचनाओं के श्रजन पर आपको ढेर सारी बधाई सादर
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , मनोहारी , अनुपम रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
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