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दिवास्वप्न... एक पुरानी कविता (डॉ० प्राची)

कभी यूँ भी हुआ है

कि

मन ही मन

उन्हें बुलाया

और वो दौड़े आये हैं...

मीलों के फासलों को झुठलाते,

मुलाकातों की सौगातें लिए,

दबे पाँव

नींदों में....

 

मुमकिन नहीं

जिन बीजों का पनपना भी,

उनकी खुशबू से

ख़्वाबों में महकती हैं

फिजाएं अक्सर....

 

और,

मैं मुस्कुराती हूँ ....

क्योंकि-

दिवास्वप्न

जिनकी मंजिल तक

कोई राह नहीं जाती

शुक्र है

वहाँ

सपनों की पहुँच है....!

(08-04-2012) मौलिक 

ओबीओ पर ही पूर्व प्रकाशित हुई थी पर अब ओबीओ पर नहीं है..इसलिए पुनः पोस्ट कर रही हूँ 

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Comment by rajesh kumari on July 4, 2014 at 8:07pm

इन्हीं सपनो को जीने के लिए कभी- कभी नींद बहुत अच्छी लगती है ,किन्तु वही नींद कभी -कभी डराती  भी है 

और,

मैं मुस्कुराती हूँ ....

क्योंकि-

दिवास्वप्न

जिनकी मंजिल तक

कोई राह नहीं जाती

शुक्र है

वहाँ

सपनों की पहुँच है....! सच कहा ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...बधाई आपको प्रिय प्राची जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 4, 2014 at 7:03pm

महनीया

सपने कही हमारी अतृप्ति की  मनोवैज्ञानिक परिणति  तो नहीं i स्वप्न ही क्यों मधुर होते है ? आपकी विहंगम रचना के लिए आपको अभिवादन  i सादर i

Comment by Sushil Sarna on July 4, 2014 at 6:41pm

वाआआआआआअह डॉ प्राची जी वाह   … मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति  … रचना में भावों का अपना माधुर्य है जो हृदय को छूता है   .... सुंदर शब्द विन्यास की इस रचना के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by Santlal Karun on July 4, 2014 at 5:44pm

आदरणीया डॉ. प्राची जी, स्वप्न-मनोविज्ञान तथा नेह-डोर के शब्द-अशब्द को व्यक्त करती इस सुन्दर रचना के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

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