बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं
गाँव-गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है
बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है
नीम की सिसकी विह्वल देखती, हुआ बेगाना अपनापन है
सूखेपन सी हरियाली में, सुन सूनेपन का खेल अजब है
ऋतुओं के मौसम की रानी, बरखा रिमझिम करे सलामी
बरगद से पूंछे हैं सखियाँ, मेरा उड़नखटोला गया किधर है
सूखे बम्बा, सूखी नदियाँ, हुई कुएं की लुप्त लहर है
निर्जन बस्ती व्यथित खड़ी है, पहले सुख था अब जर्जर है
शहर गये कमाने जब से, गाँव लगे है पिछड़ा उनको
राह तके हैं बूढ़े बरगद, व्यथित पुकारे विजन डगर है
कैसी ये ईश्वर की लीला न्यारी, मन में मेरे प्रश्न प्रहर है
तोड़ के बंधन माँ का आंचल, इनके लिए बस यही प्रथम है
घर-घर दिल हैं लगे सुलगने, बच्चों की किलकारी कम है
उजड़ गयी कैसे फुलवारी, पहले घर था अब बना खण्डहर है
मौलिक एवँ अप्रकाशित...
सुनीता दोहरे ......
Comment
आदरणीया सुनीता जी रचना बेहद भाई पर अरुण जी की बातों से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ .इस रचना पर हार्दिक बधाई सादर
आदरणीया सुनीता जी बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है आपने रचना पसंद आई, प्रवाह पर थोडा और काम कीजिये प्रवाह की कमी नहीं होती तो आनंद आ जाता. बहरहाल मेरी ओर से बधाई स्वीकारें.
narendrasinh chauhan जी , आपका बहुत -बहुत धन्यवाद ........ सादर प्रणाम !!!
laxman dhami जी , आपका बहुत -बहुत धन्यवाद ........ सादर प्रणाम !!!!!!
गाँव-गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है
बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है
क्या खूब कहा आदरणीय , हार्दिक बधाई l
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