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ग़ज़ल - - ' ज़िन्दगी क्यूँ है उधारी सी ' ( गिरिराज भंडारी )

2122      2122        2

कुछ  परायी  कुछ  हमारी  सी

ज़िन्दगी  क्यूँ   है  उधारी  सी

 

अश्क़ों की  नदियाँ  थमीं तो  हैं

सिसकियाँ अब तक हैं जारी सी

 

लोग कहते हैं  कि  जी ली, पर

ज़िन्दगी  लगती   गुजारी  सी

 

बदलियों के सामने  क्यों  धूप

हो  रही  है  इक  भिखारी  सी

 

आसमाँ रोया  बहुत  था  कल

आज  सूरत  है  निखारी  सी

 

हर तरफ़  घायल हुआ हूँ   मै

बात  शायद   थी  दुधारी  सी

 

बेक़रारी   दिल   में   तारी  है

इक ग़ज़ल हो जाये प्यारी  सी

*****************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 7, 2014 at 10:07am

आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 7, 2014 at 10:06am

आदरणीय विजय भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका  तहे दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 7, 2014 at 10:05am

आदरणीया कल्पना जी,  आपकी सराहना  के लिये आपका तहे दिल से आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 7, 2014 at 10:03am

आदरणीय बड़े भाई  गोपाल जी , आपके स्नेह सिक्त आशीषों के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 7, 2014 at 9:20am

कुछ  परायी  कुछ  हमारी  सी

ज़िन्दगी  क्यूँ   है  उधारी  सी..........वाह! बहुत लाजवाब मतला

 

लोग कहते हैं  कि  जी ली, पर

ज़िन्दगी  लगती   गुजारी  सी............बहुत उम्दा शेर हुआ

नमन सर जी, बहुत ही कमाल की गजल कही आपने. तहे दिल से बधाई आपको

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 7, 2014 at 8:28am
लोग कहते हैं कि जी ली, पर
ज़िन्दगी लगती गुजारी सी
बहुत खूब , आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , बधाई .
Comment by कल्पना रामानी on July 6, 2014 at 10:30pm

वाह,वाह! निहायत खूबसूरत गजल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय गिरिराज जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 6, 2014 at 6:39pm

सुभान अल्लाह  i क्या उम्दा गजल है i आख़िरी शेर ने तो जान ही निकाल ली i  मै  मित्र आपका एहतराम करता हूँ  i

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