२१२२, ११ २२, ११२२, २२/ ११२
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आप का, ग़म में हमारे कभी शामिल होना,
अपनी क़िस्मत में नहीं था ये भी हासिल होना.
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ये सफ़र ज़ीस्त का था, साथ चली रुसवाई,
देखना बाक़ी रहा...राह का मंज़िल होना.
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इक सफ़र चलता रहा उसके फ़ना होने तक,
एक हसरत थी लहर की, कभी साहिल होना.
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जश्न में डूबे हुए दिल में ख़लिश थी हरदम,
रोज़ महसूस किया, याद का...महफ़िल होना.
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बोझ नाक़ाम सी हसरत का उठाकर देखो,
कितना आसान है आसान का मुश्किल होना.
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“नूर” इल्ज़ाम उठाकर लगे जीना मुश्किल,
हाय!! आसाँ भी नहीं ख़ुद का ही क़ातिल होना.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आ. सौरभ जी ..
"बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना".. गुनगुनाते हुए ये ख़याल आया था कि अक्सर आसान का मुश्किल होना बहुत आसान है सो ये शेर हुआ ..
आपकी दाद से अभिभूत हूँ ..
धन्यवाद
मैं भी मतले पर मुग्ध हूँ.
इसके अलावा ये दोनों शेर बेहद अपने से लगे हैं -
बोझ नाक़ाम सी हसरत का उठाकर देखो,
कितना आसान है आसान का मुश्किल होना.
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“नूर” इल्ज़ाम उठाकर लगे जीना मुश्किल,
हाय!! आसाँ भी नहीं ख़ुद का ही क़ातिल होना. ...
ढेर सारी दाद कुबूल हो, आदरणीय नीलेश जी..
शुक्रिया आ. गुमनाम जी
शुक्रिया आ. मदन मोहन सक्सेना जी
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
बहुत सुन्दर गजल ,हार्दिक बधाई
बहुत सुन्दर गजल हुई है। बधाई स्वीकारें.............................................
वाह आदरणीय निलेश भाई लाजवाब ग़ज़ल है खास तौर पर मत्ला बेमिसाल हुआ है
शुक्रिया आ. अरुण कुमार जी
शुक्रिया आ. वेदिका जी
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