आ. तिलक राज कपूर सर के मार्गदर्शन से एक ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है .. उम्मीद है आप का स्नेह प्राप्त होगा
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12122/ 12122/ 12122/ 12122
हया के मारे वो वस्ल के पल, नज़र का पर्दा गिरा रही है,
मगर ये गालों की सुर्ख़ रंगत, हर एक ख्वाहिश बता रही है.
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कभी ज़मीं वो कुरेदती है, घुमाए जाती है अपना कंगन,
छुपा रही है मिलन की चाहत, तभी तो नज़रें चुरा रही है.
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ज़रा हदों से निकल के आगे मरोड़ दी जब कलाई उसकी,
लगे कि जैसे वो कसमसाकर क़रीब अपने बुला रही है.
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ये हसरतों के भड़कते शोले, लगे कि दुनिया मचल उठी हो,
उखडती साँसों की धौंकनी अब, लवें दीयों की बुझा रही है.
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ये मोगरे के महकते गजरे, महक रहा है कभी पसीना,
लगी महकने हयात सारी, महक-महक में समा रही है.
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कभी वो मेहमां रही है मेरी, कभी वो करती है मेज़बानी,
कभी लगे है वो ओढ़नी सी, कभी वो खुद को बिछा रही है.
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घटाएँ बरसी किनारे टूटे, चुनी हैं राहें नदी ने अपनी,
नदी समंदर से मिल रही है, वो अपनी हस्ती मिटा रही है.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सौरभ सर.. आपकी दाद पाकर हौसला मिलता है ..
बहुत बहुत धन्यवाद
दिल अश-अश कर उठा साहब.. इस दिल की अतल गहराइयों से बधाइयाँ लीजिये.
बहुत खूब ! भाईजी, बहुत खूब !
शुक्रिया विजय मिश्र जी ..आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ है.
शुक्रिया आ. rajesh kumari जी ..
कभी ज़मीं वो कुरेदती है, घुमाए जाती है अपना कंगन,
छुपा रही है मिलन की चाहत, तभी तो नज़रें चुरा रही है.----एक चित्र सा बन गया मानो आँखों के सम्मुख ----हसीन पलों को खूबसूरती से कैद किया है अशआरों में ,बहुत सुन्दर मुसल्सल ग़ज़ल लिखी आपने ,दाद कबूलिये आ० नीलेश जी
शुक्रिया आदरणीय विजय जी
//घटाएँ बरसी किनारे टूटे, चुनी हैं राहें नदी ने अपनी,
नदी समंदर से मिल रही है, वो अपनी हस्ती मिटा रही है.//
वाह, बहुत ही खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई।
शुक्रिया आ. संतलाल जी
शुक्रिया श्री नरेन्द्र सिंह जी
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