मुझे वो याद करते हैं जो भूले थे कभी मुझको,
बस ऐसे ही जहां भर की मिली है दोस्ती मुझको.
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ज़माना ज़ह्र में डूबे हुए नश्तर चुभोता है,
बचाती ज़ह्र से लेकिन मेरी ये मयकशी मुझको.
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मुझे कहने लगा ख़ंजर, “मुहब्बत है मुझे तुमसे,
कि इक दिन मार डालेगी तुम्हारी सादगी मुझको.”
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ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको.
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ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन पत्थरों की बेबसी मुझको.
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बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको.
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बिखर जाऊं जहां में “नूर” बनके है यही ख्वाहिश,
मेरे मौला अता कर बरक़तों की रौशनी मुझको.
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निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया डॉ. प्राची सिंह जी ...
आदरणीय नीलेश जी
बहुत खूबसूरत पुरअसर अशआर कहे हैं..
सभी एक से बढ़ कर एक हैं.
ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको........................वाह! बहुत खूब
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ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन पत्थरों की बेबसी मुझको......................क्या खूब ख़याल है...वाह!
इस गजल के होने par बहुत बहुत बधाई
आ. Saurabh Pandey जी ..आपने जिस ओर ध्यान दिलाया है उसे अभी दुरुस्त किये लेता हूँ ..अपनी मूल प्रति में ..
बहुत बहुत शुक्रिया आपने इस्तनी बारीक बात भी सामने लाई.
वैसे एक दो और गज़ले है जो आपका इंतज़ार कर रही हैं .. :)
सादर
shukriya aa. Shantilal ji
इस रवां-दवां ग़ज़ल पर देर से आया हूँ, आदरणीय नीलेशजी. तो क्या हुआ. दिल से बधाइयाँ दे रहा हूँ.
शेरों ने बस झूमने को मजबूर कर दिया है.
अलबत्ता, इन बबर शेरों में एक ही है जो तनिक शेर हो कर रह गया है ... :-)))
ज़माना ज़ह्र में डूबे हुए नश्तर चुभोता है,
बचाती ज़ह्र से लेकिन मेरी ये मयकशी मुझको.
इसके दोनों मिसरों में ज़ह्र का आना तनिक जमा नहीं. अब मेरी समझ ही इतनी है आदरणीय, क्षमा कीजियेगा.
सानी यदि ऐसे हो जाये तो क्या गलत होगा - बचाती है मगर उससे मेरी ये मयकशी मुझको.
अब भी मैं खुल के कह रहा हूँ, ये मैंने यों ही झोंक दिया है. आप कत्तई अन्यथा न लेंगे. तथा, सभी सुधीजनों की सलाह से हम जैसे लोग सीखते-समझते हैं, आदरणीय.
सादर
"ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन पत्थरों की बेबसी मुझको." ... निलेश जी, सुन्दर-सी ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
धन्यवाद आ. गुमनाम जी
धन्यवाद आदरणीय विजय जी
हुत ही सुन्दर ग़ज़ल। आपको बहुत बहुत बधाई।
मुझे कहने लगा ख़ंजर, “मुहब्बत है मुझे तुमसे,
कि इक दिन मार डालेगी तुम्हारी सादगी मुझको.”
बिखर जाऊं जहां में “नूर” बनके है यही ख्वाहिश,
मेरे मौला अता कर बरक़तों की रौशनी मुझको.
हार्दिक बधाई।
//बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको.//
बहुत ही खूबसूरत गज़ल बनी है। हार्दिक बधाई।
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