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मार्मिक
sahi kaha ..
आदरणीय गणेश भाईजी
गरीब ममतामयी माँ घर परिवार बच्चों के लिए क्या कुछ नहीं करती । दिन भर खटती है फिर भी अभावों में जीती है। लगता है ग्रामीण भुट्टे वाली के उठने का समय और सिंह साहब के बिस्तर पर जाने का समय लगभग एक है । शहर में ऐसे बिगड़े नवाबों की भरमार रहती है जो सूर्योदय के 3 - 4 घंटे बाद ही उठते हैं।
"कमबख्त सुबह सुबह चिल्ला कर नींद हराम कर देती है, चैन से सोने भी नहीं देती, अगर कल से इस कॉलोनी में चिल्लाई तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा" , ( जैसे पूरी कालोनी इसी की है )
ऐसे मीठे बोल बिगड़े नवाबों के ही हो सकते हैं ! ............ और वह गरीब भुट्टे वाली पलटकर जवाब देने के बजाय माफ़ी माँग रही है!!!
कितना अंतर है दोनों के स्वभाव में। एक शहर और एक गाँव में । एक शिक्षित शहरी और एक अशिक्षित ग्रामीण में।
मेरी हार्दिक बधाई इस लघु कथा पर ।
बच्चो को पालने की मज़बूरी दर्शाते हुए डांटने वाले व्यक्ति की नींद खलल पर जोरदार तंज कसती लघु कथा के लिए
हार्दिक बधाई श्री गणेशजी "बागी" जी
आदरणीय ग़णेश भाई , दोनो के सोने के अर्थों मे कितनी भिन्नता है ? बहुत सुन्दर !! लघुकथा के लिये बधाइयाँ ॥
सराहना हेतु ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय विनय कुमार सिंह जी ।
सराहना हेतु ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय विनय कुमार सिंह जी ।
लघुकथा की आत्मा तक जाकर की गई आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धन करती है आदरणीय संतलाल जी, ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
सराहना हेतु आभार आदरणीय जीतेन्द्र जी ।
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