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न तो आँधियाँ ही डरा सकीं , न ही ज़लजलों का वो डर रहा
तेरे नाम का लिये आसरा , सभी मुश्किलों से गुजर रहा
न तो एक सा रहा वक़्त ही , न ही एक सी रही क़िस्मतें
कभी कहकहे मिले राह में , कभी दोश अश्कों से तर रहा
कोई अर्श पे जिये शान से , कहीं फर्श भी न नसीब हो
कहीं फूल फूल हैं पाँव में , कोई आग से है गुज़र रहा
तेरी ज़िन्दगी मेरी ज़िन्दगी , हुआ मौत से जहाँ सामना
हुआ हासिलों का शुमार जब , ये सिफर हुआ वो सिफर रहा
कभी था यक़ीन भी छाँव पर , कभी धूप भी थी खिली हुई
हुई बदलियों में वो साजिशें , न वो आफताब न घर रहा
ऐ खुदा तेरे तो जहान की , है हक़ीकतें भी अजब गज़ब
कोई खाया इतना कि मर गया, कोई खा सका न तो मर रहा
गिरी बिजलियाँ यहाँ इस क़दर ,जला ख़्वाब का मेरा आशियाँ
बड़ा अब सुकून हुआ मुझे , न वो घर रहा न वो डर रहा
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय गिरिराज भाई साहब, गुणी जनों से यह सुना है कि मिसरों में एक शब्द भी अधिक न हो अर्थात शेर इस तरह संतुलित हो कि न कुछ जोड़ा जा सके और न घटाया जा सके, मिसरों को एक बार उस कसौटी पर भी देखने की जरुरत है, ख्याल हमेशा की तरह उम्दा है, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर।
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