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इक ज़माना हो जाता है …

इक ज़माना हो जाता है …

आदमी
कितना छोटा हो जाता है
जब वो पहाड़ की
ऊंचाई को छू जाता है
हर शै उसे
बौनी नज़र आती है
मगर
पाँव से ज़मीं
दूर हो जाती है
उसके कहकहे
तन्हा हो जाते हैं
लफ्ज़ हवाओं में खो जाते हैं
हर अपना बेगाना हो जाता है
ऊंचाई पर उसकी जीत
अक्सर हार जाती है
वो बुलंदी पर होकर भी
खुद से अंजाना हो जाता है
ज़मी के बशर तो
ज़मीं पर ज़िंदा रहते हैं मगर
ज़मीं के वास्ते वो
इक ज़माना हो जाता है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on July 26, 2014 at 9:16pm
आदरणीय सुशील सरना जी , वाह , वाह . बहुत ही सुन्दर ,
आदमी अपनी औकात जानता नहीं
ज़रा सी तरक्की और औकात पहले
भूल जाता है .
आकाश छू पाता नहीं
जमीन से छूट जाता है ,
जमीं पर चलना सीखता नहीं
आसमान में उड़ने लग जाता है

बधाई .
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 26, 2014 at 5:31pm

बड़ा हुआ  तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर

पंथी को चाय नहीं फल लगे अति दूर

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